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________________ ( २१ ) बन्धनकरण : विषय परिचय अधिकार के प्रारम्भ में मंगलाचरणपूर्वक कर्मप्रकृति विभाग के प्रतिपाद्य बंधन आदि आठ करणों की व्याख्या करने का निर्देश किया है और फिर बंधन आदि आठ करणों के नाम और उनके लक्षण बतलाये हैं। ____ यथाक्रम वर्णन करने के न्यायानुसार प्रथम बंधनकरण का सविस्तार विवेचन करने के लिए संसारी जीव के कर्मबंध की कारणरूप वीर्य शक्ति जो योग के नाम से भी कहलाती है, की लाक्षणिक व्याख्या की है और अपर पर्यायवाची नामों का उल्लेख किया है। तदनन्तर योगसंज्ञक वीर्य शक्ति की विस्तार से विचारणा करने के लिये अविभाग, वर्गणा, स्पर्धक, अन्तर, स्थान, अनन्तरोपनिधा, परंपरोपनिधा, वृद्धि (हानि), काल और जीवाल्पबहुत्व इन दस प्ररूपणा अधिकारों के नामनिर्देशपूर्वक इनकी यथायोग्य आवश्यक विवेचना की है। जो गाथा ५ से लेकर १२ तक आठ गाथाओं में पूर्ण हुई है और आगे की तेरहवीं गाथा में योग द्वारा होने वाले कार्य का उल्लेख किया है कि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट योग शक्ति के माध्यम से संसारी जीव तदनुरूप कर्मस्कन्धों को ग्रहण करते हैं और औदारिकादि शरीर रूप में परिणमित करते हैं एवं भाषा, श्वासोच्छवास, मन के योग्य पुद्गलों का अवलंबन लेते हैं । ___संसारी जीव पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण आदि करते हैं। अतएव फिर यह स्पष्ट किया है कि कौन से पुद्गल ग्रहण योग्य हैं और कौन से अयोग्य हैं ? इसकी विस्तृत विवेचना करने के लिए चौदह पन्द्रह सोलह इन तीन गाथाओं द्वारा पुद्गल वर्गणाओं का निरूपण किया है कि ये पौद्गलिक वर्गणाों अनेक हैं। जिनमें से औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तजस, भाषा, श्वासोच्छवास, मन और कार्मण ये आठ वर्गणाये जीव द्वारा ग्रहणयोग्य हैं तथा ये आठों अग्रहण वर्गणाओं से
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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