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________________ ( १८ ) १०. निकाचना-उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा इन चार अवस्थाओं के न होने की स्थिति का नाम निकाचना है। इस अवस्था का अर्थ है कि कर्म का जिस रूप में बंध हुआ है उसी रूप में उसे अनिवार्यतः भोगना। किसी-किसी कर्म प्रकृति की यह अवस्था भी होती है। ____ अन्य-अन्य दार्शनिक परम्पराओं में उदय के लिए प्रारब्ध, सत्ता के लिये सचित, बंधन के लिये क्रियमाण, निकाचन के लिये नियतविपाकी, संक्रमण के लिये आवापगमन, उपशमन के लिये तनु आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। अवस्थाओं के विषय में विशेष ___ उक्त दस अवस्थाओं में से उदय और सत्ता यह दो कर्म-सापेक्ष हैं। इनमें आत्मशक्ति का प्रयत्न कार्यकारी नहीं होता है और शेष अवस्थायें आत्मसापेक्ष हैं। अर्थात् आत्मा की वीर्यशक्ति के द्वारा बंधन आदि आठ अवस्थाएँ होती हैं। इसलिए आत्म-परिणामों का बोध कराने के लिये 'करण' शब्द जोड़कर 'बंधनकरण' आदि का और कर्म की अवस्था बताने के लिये सिर्फ 'बंधन, संक्रमण' आदि का प्रयोग होता है। ____ यह तो पूर्व में संकेत किया जा चुका है कि सामान्य संसारी जीव को प्रति समय कर्मबंध होता रहता है । परन्तु इतना होने पर भी प्रति समय प्रत्येक कर्म एक समान रीति से नहीं बंधता है परन्तु अनेक रीति से बंधता है तथा जो कर्म जिस रूप में बंधा हो, वह कर्म उसी प्रकार से उदय में आये और फल दे ऐसा भी नहीं है। कितनी ही बार कितने ही कर्म जिस रूप में बंधे हों उसी रूप में नियत समय पर उदय में आते हैं और अपना विपाक-वेदन कराते हैं। परन्तु ऐसा भी होता है कि कितने ही कर्म बंधसमय में जिस रूप में बंधे हों, उससे अन्य रूप में फल देते हैं, निश्चित समय की अपेक्षा आगे-पीछे अथवा अधिक काल तक फल देते हैं एवं ऐसा भी होता है कि कितने हो कर्म फल दिये बिना क्षय हो जाते हैं।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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