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( १७ ) सामान्यतया जिस कर्म का उदय प्रवर्तमान रहता है, उसके सजातीय कर्म की उदीरणा होती है।
५. उद्वर्तना-बद्ध कर्मों का स्थिति और अनुभाग-इसका निश्चय बंध के साथ विद्यमान कषाय की तीव्रता और मन्दता के अनुसार होता है। उसके बाद की स्थितिविशेष अथवा भावविशेषअध्यवसायविशेष के कारण उस स्थिति के अनुभाग में वृद्धि हो जाना उद्वर्तना कहलाता है।
६. अपवर्तना-- यह अवस्था उद्वर्तना के विपरीत है। बद्ध कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसायविशेष से कमी कर देने का नाम अपवर्तना है।
७. संक्रमण-एक प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के परमाणुओं की स्थिति आदि में परिवर्तन अथवा परिणमन होना संक्रमण कहलाता है। ___ यह सक्रमण किसी एक मूलप्रकृति की उत्तरप्रकृतियों में होता है, विभिन्न मूलप्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता है। संक्रमण सजातीय उत्तरप्रकृतियों में ही माना गया है, विजातीय प्रकृतियों में नहीं होता है। सजातीय प्रकृतियों के संक्रमण में भी कुछ अपवाद हैं, जैसे कि आयुकर्म के चारों भेदों में परस्पर संक्रमण नहीं होता है और न दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय में।
८. उपशमन-कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा सम्भव नहीं होती, उसे उपशमन कहते हैं। इस अवस्था में भी उद्वर्तन-अपवर्तन और संक्रमण की सम्भावना है । उपशमन अवस्था में रहा हुआ कर्म उस अवस्था के समाप्त होते ही उदय में आकर फल प्रदान करने रूप अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है।
६. नित्ति-कर्म की उदीरणा और संक्रमण के सर्वथा अभाव की स्थिति को निधत्ति कहते हैं। इस स्थिति में उद्वर्तना और अपवर्तना की सम्भावना रहती है।