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________________ २३६ पंचसंग्रह : ६ गाथार्थ-शुभ और अशुभ प्रकृतियों का क्रमशः चतुःस्थानक और द्विस्थानक रसबंध होता हो तब ध्रुवप्रकृतियों की जघन्य स्थिति के बंधक जीव स्तोक-अल्प होते हैं, तत्पश्चात् आगे-आगे की स्थिति बांधने वाले जीव क्रमश: विशेषाधिक-विशेषाधिक होते हैं और फिर शतपृथक्त्व सागरोपम से परे के स्थानों में विशेष हीन-हीन (अल्प-अल्प) होते हैं। विशेषार्थ-परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानक और परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानक रस को बांधते हुए जो जीव ध्र वबंधिनी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति बांधते हैं, वे स्तोक अल्प हैं । इसके बाद की दूसरी स्थिति जो बांधते हैं, विशेषाधिक हैं, तीसरी स्थिति बांधने वाले विशेषाधिक हैं, इस प्रकार उत्तरोत्तर वहाँ तक कहना चाहिये यावत् सैकड़ों सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्थितियां व्यतीत हों। यहाँ पृथक्त्व शब्द बहुत्ववाची होने से तात्पर्य इस प्रकार है____ अनेक सैकड़ों सागरोपम प्रमाण स्थितियां जायें, वहाँ तक अनुक्रम से एक-एक स्थितिस्थान में विशेषाधिक-विशेषाधिक जीव कहना चाहिये, उसके बाद से विशेषहीन-विशेषहीन कहना और वह भी एक-एक स्थितिस्थान में विशेषहीन-विशेषहीन अनेक सैकड़ों सागरोपम तक कहना चाहिये। परावर्तमान शुभ और अशुभ प्रकृतियों का विस्थानक रस बांधने पर उस समय जितनी स्थिति बंध सके उतनी ध्र वबंधिनी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति बांधने वाले जीव अल्प हैं, उसके बाद की दूसरी स्थिति बांधने वाले विशेषाधिक हैं, तीसरी स्थिति बांधने वाले विशेषाधिक है। इस प्रकार उत्तरोत्तर विशेषाधिक-विशेषाधिक वहाँ तक कहना चाहिये, यावत् बहुत से सैकड़ों सागरोपम प्रमाण स्थितियां जायें। इसके अनन्तर एक-एक स्थितिस्थान विशेषहीन-विशेषहीन कहना चाहिये, वह भी सैकड़ों सागरोपम प्रमाण स्थितिस्थान पर्यन्त कहना चाहिये।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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