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________________ २३५ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११० जैसे-जैसे वह कषाय घटती जाती है, वैसे-वैसे पाप में रस मंद, पुण्य में अधिक और स्थितिबंध कम होता जाता है। अप्रत्याख्यानावरणकषाय तीव्र रूप में हो तब स्थितिबंध मध्यम, पुण्य में त्रिस्थानक और पाप में भी विस्थानक रसबंध होता है, वह कषाय जैसे-जैसे घटती जाती है, वैसे-वैसे पुण्य प्रकृतियों के रस में वृद्धि और पाप के रस में हानि होती जाती है। प्रत्याख्यानावरणकषाय जब तीव्र रूप में हो तब स्थितिबंध पूर्व की अपेक्षा कम, पुण्य का चतुःस्थानक रसबंध और पाप का द्विस्थानक रसबंध होता है । वह भी कषाय के घटने से कम होता जाता है। संज्वलन कषाय जब तीव्र रूप में हो तब स्थितिबंध पूर्व से भी कम पुण्य का चतुःस्थानक रसबंध परन्तु पूर्व से बहुत अधिक और पाप का द्विस्थानक रसबंध होता है। उसकी शक्ति भी जैसे-जैसे घटती जाती है वैसे-वैसे पुण्य का चतुःस्थानक रस बढ़ता जाता है और पाप का द्विस्थानक या एकस्थानक रसबंध होता है और दसवें गुणस्थान के अंत समय में कषाय अत्यन्त मंद होने से पुण्य का अत्यन्त उत्कृष्ट और पाप का अत्यन्त हीन रसबंध होता है। इस प्रकार कषाय की तीव्रमंदता पर स्थिति–रसबंध की तीव्रमंदता निर्भर है। ___ अब ध्र वबंधिनी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति बांधते हुए पुण्य प्रकृतियों का चतुःस्थानकादि और पाप प्रकृतियों का द्विस्थानकादि रस बंध करनेवाले जीवों का अनन्तरोपनिधा से अल्पबहुत्व कहते हैं। चउदुठाणाइ सुभासुभाण बंधे जहन्नध्रुवठिइसु । थोवा विसेसअहिया पुहत्तपरओ विसेसूणा ॥११०॥ शब्दार्थ-चउठाणाइ-चतुःस्थानक, द्विस्थानक, सुभासुभाण-शुभ और अशुभ प्रकृतियों के, बंधे जहन्नवठिइसु-ध्र वप्रकृतियों की जघन्य स्थितिबंध में, थोवा-स्तोक, विसेसअहिया-विशेषाधिक, पहुसपरओ-शत पृथक्त्व सागरोपम से परे, विसेसूणा-विशेष न्यून (अल्प-अल्प) ।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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