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________________ बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८६ १७६ जघन्य स्थितिस्थान के बाद का दूसरा स्थितिस्थान बाँधने पर जितने रसबंधाध्यवसाय होते हैं, उनमें का असंख्यातवां भाग प्रत्येक स्थितिस्थान में छूटते-छूटते उनकी अनुकृष्टि कंडक प्रमाण स्थान से ऊपर के स्थान में समाप्त होती है । इसी प्रकार तृतीय स्थितिबंध के आरम्भ में रहे हुए रसबंधाध्यवसायों की अनुकृष्टि कंडक के बाद के दूसरे समय में समाप्त होती है । इस तरह अनुकृष्टि और उसकी समाप्ति वहां तक कहना चाहिये यावत् पूर्व में कही गई अपरावर्तमान अशुभ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति हो । किसी भी स्थितिस्थान में विद्यमान रसबंधाध्यवसायों की अनुकृष्टि उस स्थान से लेकर कंडक यानि पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण स्थितिस्थान पर्यन्त ही होती है और क्रमशः कम कम होते-होते वहाँ तक वे अध्यवसाय अनुसरण करते हैं । किसी भी स्थितिस्थान में के रसबंधाध्यवसाय को जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त स्थापित करना, उनमें प्रारम्भ से ही पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण न्यून शेष रसबंधाध्यवसाय ऊपर के स्थान में जाते हैं, यह समझना चाहिये | जैसे कि असत्कल्पना से पहले स्थान में एक हजार अध्यवसाय हैं, उनमें का असंख्यातवां भाग प्रमाण यानि एक से दस तक कम होकर ग्यारह से हजार तक के अध्यवसाय ऊपर के स्थान में जाते हैं । इस प्रकार से अपरावर्तमान अशुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि का विचार जानना चाहिये | अब अपरावर्तमान शुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि का कथन करते हैं । अपरावर्तमान शुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि उवघायाईणेवं एसा परघायमाइसु विसेसो । उक्कोठिहतो हेट्ठमुहं कीरइ असेसं ॥ ८६॥ शब्दार्थ - उवधायाईनेवं - उपघात आदि की इसी प्रकार एसा — यह पूर्व में कही गई, वह, परघायमाइसु —- पराघात आदि में, विसेसो- विशेष है,
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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