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________________ १७२ पंचसंग्रह : ६ गाथार्थ-ग्रन्थिदेश में जो संज्ञी अभव्य जीव स्थिति है, उस अभव्य जीव के जो स्थितिबंध होता है, उस बंध से स्थिति की वृद्धि होने पर अनुकृष्टि प्रारम्भ होती है। विशेषार्थ-अनुकृष्टि का विचार किस स्थितिस्थान से प्रारम्भ किया जाता है, इसके लिये नियम बताते हैं कि ग्रन्थिदेश में विद्यमान संज्ञी पंचेन्द्रिय अभव्य जीव को जो जघन्य स्थितिबंध होता है, उस जघन्य स्थितिबंध से लेकर उत्तर-उत्तर के स्थितिस्थानों में रसबंधाध्यवसायों की अनुकृष्टि का विचार प्रारम्भ किया जाता है तथा गाथोक्त 'तु' शब्द अनुक्त अर्थ का समुच्चय करने वाला होने से यह अर्थ हुआ कि कितनी ही प्रकृतियों का अभव्य को जो स्थितिबंध होता है, उससे भी न्यून स्थितिबंध से अनुकृष्टि प्रारम्भ होती है। ____ अनुकृष्टि अर्थात् अध्यवसायों का अनुसरण यानि पूर्व-पूर्व के स्थितिस्थान में जो-जो रसबंधाध्यवसाय होते हैं, उनमें के अमुक अध्यवसाय उसके बाद के कितने स्थितिस्थान तक होते हैं, उसका विचार अनुकृष्टि कहलाता है । अनुकृष्टि, अनुकर्षण, अनुवर्तन ये सभी एकार्थक नाम हैं। - अनुकृष्टि का विचार किस प्रकार से प्रारम्भ किया जाता है, अब इसका नियम सूत्र स्पष्ट करते हैं । अनुकृष्टि विचार का नियम सूत्र वग्गे-वग्गे अणुकड्ढी तिव्वमंदत्तणाई तुल्लाइं। उवघायघाइपगडी कुवन्ननवगं असुभवग्गो ॥७॥ शब्दार्थ-वग्गे-वग्गे-वर्ग-वर्ग में, अणुकड्ढो-अनुकृष्टि, तिव्वमंदत्तणाई-तीव्रमंदता आदि, तुल्लाइं–तुल्य है, उवघाय-उपघातनाम, घाइपगडी-घाति प्रकृतियाँ, कुवन्नन वर्ग-अशुभवर्णादिनवक, असुभवग्गोअशुभवर्ग । गाथार्थ-वर्ग-वर्ग में अनुकृष्टि और तीव्र-मंदता आदि तुल्य
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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