SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ पंचसंग्रह : ६ नेहस्स-स्नेह-रस की, छव्विहा-छह प्रकार की, वुड्ढी-वृद्धि, हाणीहानि, व–अथवा, कुणंति-करते हैं, जिया-जीव, आवलिभागं असंखेज्जआवलिका के असंख्यातवें भाग। ____ अंतमुहत्त-अन्तमुहूर्त, चरिमा-अंतिम, उ-और, दोवि-दोनों ही, समयं-एक समय, तु-और, पुण–पुनः, जहन्नेणं-जघन्य से, जवमज्झविहाणेणं-यवमध्य के क्रम से, एत्थ-यहाँ, विगप्पा-विकल्प, बहुठिइया(अल्प) अधिक स्थिति वाले। गाथार्थ परिणामों के निमित्त से रस की वृद्धि अथवा हानि छह प्रकार की होती है। जीव आदि की पांच वृद्धि और हानि आवलिका के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण करते हैं । किन्तु ___ अंतिम वृद्धि और हानि अंतमुहुर्त प्रमाण करते हैं और जघन्य से प्रत्येक वृद्धि और हानि का काल एक समय है। यवमध्य विधि से अल्प-अधिक स्थिति वाले स्थानों के विकल्प समझे जा सकते हैं। विशेषार्थ--गाथा में वृद्धि, समय और यवमध्य इन तीन प्ररूपणाओं के आशय को स्पष्ट किया है । जिनका विस्तार से विवेचन इस प्रकार है वृद्धि प्ररूपणा-जीव के परिणामों के तारतम्य के कारण अनन्तरोक्त (पूर्व में कहे गये) स्नेह-रस की छह प्रकार की हानि अथवा वृद्धि होती है कि किसी समय अनन्तभागाधिक स्पर्धक वाले रसस्थान में जाता है, किसी समय असंख्यभागाधिक स्पर्धक वाले रसस्थान में, किसी समय संख्यातभागाधिक स्पर्धक वाले रसस्थान में, किसी समय संख्यातगुण, असंख्यातगुण या अनन्तगुणाधिक स्पर्धक वाले रसस्थान में जाता है । इसी प्रकार छह हानि वाले स्थानों में भी जाता है। इस तरह जीव परिणामों के वश हानि, वृद्धि करता रहता है। _____ समय प्ररूपणा--इस प्ररूपणा के दो प्रकार हैं-१. षट् गुण हानिवृद्धि निरन्तर होने के समय की प्ररूपणा और २. उन-उन वृद्धि और
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy