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________________ पंचसंग्रह ३. अथवा अनन्तानुबंधी और छह काय के वध को मिलाने पर भी सोलह हेतु होते हैं। उनके ५४५४१४२४३४४४१३, इस क्रम से अंकों का गुणाकार करने पर (७,८००) सात हजार आठ सौ भंग होते हैं। ४. अथवा भय, जुगुप्सा और कायपंचकवध को मिलाने से भी सोलह हेतु होते हैं । उनके भी पूर्व की तरह (३६,०००) छत्तीस हजार भंग होते हैं। ५. अथवा भय, अनन्तानुबंधी और कायपंचकवध को मिलाने पर भी सोलह हेतु होते हैं । उनके (४६,८००) छियालीस हजार आठ सौ भंग होते हैं। ६. इसी प्रकार जगुप्सा, अनन्तानुबंधी और पांच काय के वध को मिलाने पर भी सोलह हेतु होते हैं । उनका पूर्वोक्त प्रकार से गुणा करने पर (४६,८००) छियालीस हजार आठ सौ भंग होते हैं। ७. अथवा भय, जुगुप्सा, अनन्तानुबंधी और कायचतुष्कवध को मिलाने पर भी सोलह हेतु होते हैं। उनके पहले की तरह (१,१७,०००) एक लाख सत्रह हजार भंग होते हैं। इस प्रकार सोलह हेतु सात प्रकार से बनते हैं और उनके कुल भंग (६,०००+६,०००+७,८००+३६,०००+४६,८००+४६,८००+ १,१७,००० =२,६६,४००) दो लाख छियासठ हजार चार सौ होते हैं। सोलह हेतुओं के प्रकार और उनके भंगों को बतलाने के बाद अब सत्रह बंधहेतुओं के प्रकार व भंगों को बतलाते हैं १. पूर्वोक्त जघन्यपदभावी दस हेतुओं में भय, जुगुप्सा और कायषट्कवध को मिलाने पर सत्रह हेतु होते हैं। उनका पूर्वोक्त क्रमानुसार अंकों का गुणा करने पर (६,०००) छह हजार भंग होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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