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________________ ३२ पंचसंग्रह +६०,००० + १,१७,००० =५,४६,६००) पांच लाख छियालीस हजार छह सौ होता है। अब तेरह हेतुओं के भंगों को बतलाते हैं १. पूर्वोक्त जघन्यपदभावी दस बंधहेतुओं में भय, जुगुप्सा और अनन्तानुबंधी का युगपत् प्रक्षेप करने पर तेरह बंधहेतु होते हैं । अनन्तानुबंधी के उदय में तेरह योग लेने से पूर्व की तरह (४६,८००) छियालीस हजार आठ सौ भंग हुए। २. अथवा दस बंधहेतुओं में ग्रहण किये गये एक काय के बदले कायचतुष्क को लेने पर भी तेरह हेतु होते हैं। छह काय के चतुष्कसंयोगी पन्द्रह भंग होते हैं । अतः कायवध के स्थान पर पन्द्रह का अंक रखने के पश्चात पूर्वक्रम से व्यवस्थापित अंकों का गुणा करने पर (६०,०००) नब्बे हजार भंग हुए। ३. अथवा भय और कायत्रिक की हिंसा को लेने पर भी तेरह हेतु होते हैं और छह काय के त्रिकसंयोग बीस भंग होने से कायवध के स्थान पर बीस का अंक रखना चाहिये और गुणाकार करने पर (१,२०,०००) एक लाख बीस हजार भंग हुए। ४. इसी प्रकार जुगुप्सा और कायत्रिक को मिलाने से भी तेरह हेतु होते हैं। इनके भी (१,२०,०००) एक लाख बीस हजार भंग होंगे। ५. अथवा अनन्तानुबंधो और कायत्रिक के वध को ग्रहण करने से भी तेरह हेतु होते हैं । जिनके पूर्वोक्त विधि के अनुसार अंकों का गुणाकार करने पर (१,५६,०००) एक लाख छप्पन हजार भंग हुए। ६. अथवा भय, जुगुप्सा और कायद्विक की हिंसा को ग्रहण करने से भी तेरह हेतु होते हैं। उसके (६०,०००) नब्बे हजार भंग हुए। ७. अथवा भय, अनन्तानुबंधी और कायद्विल को लेने पर भी तेरह हेतु होते हैं। उनके भी पूर्व की तरह (१,१७,०००) एक लाख सत्रह हजार भंग होंगे। ८. इसी प्रकार अनन्तानुबंधी, जुगुप्सा और कायद्विक वध को लेने पर भी (१,१७,०००) एक लाख सत्रह हजार भंग होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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