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________________ बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार, गाथा' ३ आभिनिवेशिक मिथ्यात्व - सर्वज्ञ वीतरागप्ररूपित तत्त्वविचारणा का खण्डन करने के लिये अभिनिवेश - दुराग्रह, आवेश से होने वाला मिथ्यात्व आभिनिवेशिक मिथ्यात्व कहलाता है । इस मिथ्यात्व के वश होकर गोष्ठामाहिल आदि ने तीर्थंकर महावीर की प्ररूपणा का खंडन करके स्व-अभिप्राय की स्थापना की थी । सांशयिक मिथ्यात्व - संशय के द्वारा होने वाला मिथ्यात्व सांशयिक मिथ्यात्व कहलाता है । विरुद्ध अनेक कोटि-संस्पर्शी ज्ञान को संशय कहते हैं । इस प्रकार के मिथ्यात्व से भगवान् अरिहन्तभाषित तत्त्वों में संशय होता है । जैसे कि भगवान् अरिहन्त ने धर्मास्तिकाय आदि का जो स्वरूप बतलाया है, वह सत्य है या असत्य है । इस प्रकार की श्रद्धा को सांशयिक मिथ्यात्व कहते हैं । अनाभोग मिथ्यात्व -- जिसमें विशिष्ट विचारशक्ति का अभाव होने पर सत्यासत्य विचार ही न हो, उसे अनाभोग मिथ्यात्व कहते हैं । यह एकेन्द्रिय आदि जीवों में होता है ।" इस प्रकार से मिथ्यात्व के पांच जानना चाहिए | अब अविरति आदि के अविरति आदि के भेद भेदों के नाम और उनके लक्षण भेदों को बतलाते हैं छक्काययहो मणइंदियाण अजमो असंजमो भणिओ । ss बारसहा सुगमो कसायजोगा य पुब्बुत्ता ॥३॥ शब्दार्थ - छक्कायव हो - छहकाय का वध, मणइंदियाण-मन और इन्द्रियों का अजमो - अनिग्रह, असंजमो -- असंयम, अविरति, भणिओकहे हैं, इइ – इस तरह, वारसहा बारह प्रकार का, सुगमो - सुगम, - १ यहाँ एकेन्द्रियादि जीवों के अनाभोग मिथ्यात्व बतलाया है । किन्तु इसी गाथा एवं आगे पांचवी गाथा की स्वोपज्ञवृत्ति में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के सिवाय शेष जीवों के अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व बताया है तथा इसी गाथा की स्वोपज्ञवृत्ति में 'आगम का अभ्यास न करना यानि अज्ञान ही श्रेष्ठ है', ऐसा अनाभोग मिथ्यात्व का अर्थ किया है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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