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पंचसंग्रह
योग्य रीति से मिथ्यात्व आदि के सद्भाव में ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की कार्मणवर्गणायें जीव- प्रदेशों के साथ सम्बद्ध होंगी । लेकिन एक - एक कर्म के विशेष बंधहेतुओं का विचार किया जाये तो मिथ्यात्व आदि सामान्य हेतुओं के साथ उन विशेष हेतुओं के द्वारा उस कर्म का तो विशेष रूप से और शेष कर्मों का सामान्य रूप से बंध होगा । इसी बात को गाथा में 'कसाय जोगा' के अनन्तर आगत 'य-च' शब्द से सूचित किया गया है ।
मिथ्यात्व - यह सम्यग्दर्शन से विपरीत-- विरुद्ध अर्थवाला है । अर्थात् यथार्थ रूप से पदार्थों के श्रद्धान- निश्चय करने की रुचि सम्यग्दर्शन है और अयथार्थ श्रद्धान को मिथ्यादर्शन - मिथ्यात्व कहते हैं । अविरति - पापों से - दोषों से विरत न होना ।
कषाय - जो आत्मगुणों को करें -- नष्ट करे, अथवा जन्म-मरणरूप संसार की वृद्धि करे ।
योग - मन-वचन-काय की प्रवृत्ति - परिस्पन्दन – हलन चलन को योग कहते हैं ।
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इन मिथ्यात्वादि चार हेतुओं के अनुक्रम से पांच, बारह, पच्चीस और पन्द्रह अवान्तर भेद होते हैं । अर्थात् मिथ्यात्व के पांच, अविरति के बारह, कषाय के पच्चीस और योग के पन्द्रह भेद हैं । गाथागत 'भेइल्ला' पद में इल्ल प्रत्यय 'मतु' अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और मतु प्रत्यय 'वाला' के अर्थ का बोधक है । जिसका अर्थ यह हुआ कि ये मिथ्यात्व आदि अनुक्रम से पांच आदि अवान्तर भेद वाले हैं ।
इस प्रकार से कर्मबंध के सामान्य बंधहेतु मिथ्यात्वादि और उनके अवान्तर भेदों को जानना चाहिये । अब अनुक्रम से मिथ्यात्व आदि के अवान्तर भेदों के नामों को बतलाते हैं । उनमें से मिथ्यात्व के पांच भेदों के नाम इस प्रकार हैंमिथ्यात्व के पांच भेदों के नाम
अभिग्गहियमणाभिग्गहं च अभिनिवेसियं चेव ।
संसइयमणाभोगं मिच्छत्त पंचहा मिच्छत्त पंचहा होइ ॥ २॥
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