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बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार, गाथा १ कोई भेद नहीं है । क्योंकि प्रमाद एक प्रकार का असंयम है। अतः उसका समावेश अविरति या कषाय में हो जाता है। इसी दृष्टि से कर्म-विचारणा के प्रसंग में कार्मग्रन्थिक आचार्यों ने मध्यममार्ग का आधार लेकर मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, इन चार को बंधहेतु कहा है । प्रस्तुत ग्रन्थ में भी इन्हीं मिथ्यात्व आदि चार को सामान्य से कर्मबंध के हेतु रूप में बताया है। यदि इनके लिये और भी सूक्ष्मता से विचार करें तो मिथ्यात्व और अविरति, ये दोनों कषाय के स्वरूप से पृथक् नहीं जान पड़ते हैं । अतः कषाय और योग, इन दोनों को मुख्य रूप से बंधहेतु माना जाता है। ___कर्मसाहित्य में जहाँ भी बद्ध कर्म-पुद्गलों में प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, इन चार अंशों के निर्माण की प्रक्रिया का उल्लेख है वहाँ योग और कषाय को आधार बताया है कि प्रकृति और प्रदेश बंध का कारण योग तथा स्थिति व अनुभाग बंध का कारण कषाय है। फिर भी जिज्ञासुजनों को विस्तार से समझाने के लिये मिथ्यात्वादि चारों अथवा पांचों को बंधहेतु के रूप में कहा है । साधारण विवेकवान तो चार अथवा पांच हेतुओं द्वारा और विशेष मर्मज्ञ कषाय और योग, इन दो कारणों की परम्परा द्वारा कर्मबंध की प्रक्रिया का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। ___ उक्त चार या पांच बंधहेतुओं में से जहाँ पूर्व-पूर्व के बंधहेतु होंगे, वहाँ उसके बाद के सभी हेतु होंगे, ऐसा नियम है। जैसे मिथ्यात्व के होने पर अविरति से लेकर योग पर्यन्त सभो हेतु होंगे, किन्तु उत्तर का हेतु होने पर पूर्व का हेतु हो और न भी हो। क्योंकि जैसे पहले गुणस्थान में अविरति के साथ मिथ्यात्व होता है, किन्तु दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थान में अविरति के होने पर भी मिथ्यात्व नहीं होता है। इसी प्रकार अन्य बंधहेतुओं के लिए भो समझना चाहिये।
इस प्रकार से बंधहेतुओं के सम्बन्ध में सामान्य से चर्चा करने के पश्चात् ग्रन्थोल्लिखित चार हेतुओं का विचार करते हैं
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-ये चार कर्मबंध के सामान्य हेतु हैं अर्थात् ये सभी कर्मों के समान रूप से बंध के निमित्त हैं। यथा
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