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भावात्मक वृत्तियों की विषमताओं को देखकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। दोनों ने एक ही माता का दूध पिया है । दोनों को समान लाड़-प्यार मिला है । सत्संस्कारों के लिए योग्य शिक्षा भी मिली है। फिर भी उन दोनों की मानसिक स्थिति एक सी नहीं है, विपरीत है। एक दुष्ट दुराचारी है और दूसरा सज्जन शालीन है। एक क्रोध का द्वैपायन है तो दूसरा सम, समता, क्षमा की प्रतिमूर्ति है। इतना ही क्यों ? माता-पिता शिक्षित, प्रकाण्ड विद्वान लेकिन उनकी ही सन्तान निपट गंवार, मूर्ख है। माता-पिता अशिक्षित लेकिन उनकी सन्तान ने अपनी प्रतिभा के द्वारा विश्वमानस को प्रभावित किया है। इत्यादि । इस प्रकार की स्थिति क्यों हैं ? तो कारण हैं इसका वे संस्कार जिनको उस व्यक्ति ने अपने पूर्वजन्म में अर्जित किये हैं। पूर्वजन्म में अर्जित संस्कारों का ही परिणाम उन-उनकी वार्तमानिक कृतिप्रवृत्ति है । वे संस्कार उन्होंने कैसे अर्जित किये थे ? तो उसके निमित्त हैं, वे हेतु जिनका मिथ्यात्व आदि के नाम से शास्त्रों में उल्लेख किया है और उनकी तरतमरूप स्थिति । उस समय कर्म करते हुए जितनी - जितनी भावात्मक परिणतियों में तरतमता रही होगी, तदनुरूप वर्तमान में वैसी वृत्ति, प्रवृत्ति हो रही है ।
बौद्ध ग्रन्थ मिलिन्दप्रश्न में भी प्राणिमात्र में व्याप्त विषमता के कारण के लिए इसी प्रकार का उल्लेख किया है कि अर्जित संस्कार के द्वारा ही व्यक्ति के स्वभाव, आकृति आदि में विभिन्नतायें होती हैं ।
उपर्युक्त विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि कर्मबंध के हेतुओं के जो विकल्प - भंग शास्त्रों में बताये हैं वे भंग काल्पनिक अथवा बौद्धिक व्यायाम मात्र नहीं हैं, किन्तु यथार्थ हैं और इनकी यथार्थता प्राणिमात्र में, व्याप्त विचित्रता और विषमता से स्वतः सिद्ध है । विचित्रतायें विषमतायें कार्य हैं और कार्य में भिन्नतायें तभी आती हैं जब कारणों की भिन्नतायें हों ।
कर्मबंध के हेतुओं की अधिकता होने पर व्यक्ति के भावों में
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