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( २२ ) की आकृति दूसरे से नहीं मिलती है। प्रत्येक के आँख, कान, हाथ, पैर आदि अंग-प्रत्यंगों की बनावट में एकरूपता नहीं है। किसी की नाक लम्बी है, किसी की चपटी, किसी के कान आगे की ओर झके हए हैं, किसी के यथायोग्य आकार-प्रकार वाले नहीं हैं। कोई बौना है, कोई कुबड़ा है, कोई दुबला-पतला कंकाल जैसा है, कोई पूरे डील-डौल का है । किसी के शरीर की बनावट इतनी सुघड़ है कि देखने वाले उसके सौन्दर्य का बखान करते नहीं अघाते और किसी की शारीरिक रचना इतनी विकृत है कि देखने वाले घृणा से मुह फेर लेते हैं।
यह बात तो हुई बाह्य दृश्यमान विचित्रताओं की कि सभी की भिन्नभिन्न आकृतियाँ हैं। अब उनमें व्याप्त विषमताओं पर दृष्टिपात कर लें। विषमताओं के दो रूप हैं-बाह्य और आन्तरिक । बाहरी विषमतायें तो प्रत्यक्ष दिखती हैं कि किसी को दो समय की रोटी भी बड़ी कठिनाई से मिलती है । दिन भर परिश्रम करने के बाद भी इतना कुछ प्राप्त होता है कि किसी न किसी प्रकार से जीवित है और कोई ऐसा है जो सम्पन्नता के साथ खिलवाड़ कर रहा है। किसी के पास यानवाहन आदि की इतनी प्रचुरता है कि दो डग भी पैदल चलने का अवसर नहीं आता, जब कि दूसरे को पैदल चलने के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं। किसी के पास आवास योग्य झोंपड़ी भी नहीं है तो दूसरा बड़े-बड़े भवनों में रहते हुए भी जीवन निर्वाह योग्य सुविधाओं की कमी मानता है। किसी के पास तो तन ढाँकने के लायक वस्त्र नहीं, फटे-पुराने चिथड़े शरीर पर लपेटे हुए है और दूसरा दिन में अनेक पोशाके बदलते हुए भी परिधानों की कमी मानता है इत्यादि ।
अब आन्तरिक भावात्मक परिणतियोंगत विषमताओं पर दृष्टिपात कर लें । वे तो बाह्य से भी असंख्यगुणी हैं। जितने प्राणधारी उतनी ही उनकी भावात्मक विषमतायें, उनकी तो गणना ही नहीं की सकती है । पृथक-पृथक् कुलों, परिवारों के व्यक्तियों को छोड़कर दो सहोदर भाइयों-एक ही माता-पिता की दो सन्तानों को देखें । उनको
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