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किन्तु पर-विजातीय पदार्थ से जाकर स्वयमेव जुड़ जायें, ऐसी योग्यता उनमें नहीं है। यदि उनको पर-विजातीय पदार्थ से जुड़ना है और जब उनका पर-विजातीय पदार्थ से सम्बन्ध होगा, तब उस पर-पदार्थ में भी वैसी योग्यता होना आवश्यक है जो अपने से विरुद्ध गुणधर्म वाले पदार्थ को स्वसंबद्ध कर सके । जीव के लिए कर्मपुद्गल विजातीयपर हैं। उनको अपने साथ जोड़ने में स्वयोग्यता कार्यकारी होगी। इसीलिए कर्मबंध में मिथ्यात्व आदि की कारणरूप में मुख्यता है। बिना इन मिथ्यात्व आदि के कार्मण वर्गणा के पुद्गल कर्मरूपता को प्राप्त नहीं हो सकते हैं। इसीलिए कर्मबंध में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांच को कारणरूप में माना है । लेकिन जब हम संक्षेप और विस्तार दृष्टि से इन कारणों का विचार करते हैं तो इनमें से बंध के प्रति योग और कषाय की प्रधानता है। आगमों में योग को गरम लोहे की और कषाय को गोंद की उपमा दी है। जिस प्रकार गरम लोहे को पानी में डालने पर वह चारों ओर से पानी को खींचता है, ठीक यही स्वभाव योग का है और जिस प्रकार गोंद के कारण एक कागज दूसरे कागज से चिपक जाता है, यही स्वभाव कषाय का है। योग के कारण कर्म-परमाणुओं का आस्रव होता है और कषाय के कारण वे . बंध जाते हैं। इसीलिए कर्मबंध हेतु पांच होते हुए भी उनमें योग और कषाय की प्रधानता है। प्रकृति आदि चारों प्रकार के बंध के लिए इन दो का सद्भाव अनिवार्य है। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जब गुणस्थान क्रमारोहण के द्वारा आत्मा की स्वभावोन्मुखी ऊर्वीकरण की अवस्थाओं का ज्ञान कराया जाता है एवं कर्म के अवान्तर भेदों में से कितनी कर्मप्रकृतियाँ किस बंधहेतु से बँधती हैं, इत्यादि रूप में कर्मबंध के सामान्य बंधहेतुओं का वर्गीकरण किया जाता है, तब वे पांच प्राप्त होते हैं। इस प्रकार आपेक्षिक दृष्टियों से कर्मबंध के हेतुओं की संख्या में भिन्नता रहने पर भी आशय में कोई अन्तर नहीं है।
ये कर्मबंध के सामान्य हेतु हैं, यानि इनसे सभी प्रकार के शुभ
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