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________________ ( १६ ) के वे परिणाम हैं जो बद्ध दशा में होते हैं। अबद्ध/मुक्त जीव में इनका सद्भाव नहीं पाया जाता है। इससे कर्मबंध और मिथ्यात्व आदि का कार्य-कारणभाव सिद्ध होता है कि बद्ध जीव के कर्मों का निमित्त पाकर मिथ्यात्व आदि होते हैं और मिथ्यात्व आदि के निमित्त से कर्मबंध होता है। इसी भाव को स्पष्ट करते हुए 'समय प्राभृत' में कहा है जीव परिणाम हेदु कम्मत्त पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्त तहेव जीवोवि परिणमई ॥ अर्थात्-जीव के मिथ्यात्व आदि परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गलों का कर्मरूप परिणमन होता है और उन पुद्गल कर्मों के निमित्त से जीव भी मिथ्यात्व आदि रूप परिणमता है। ___ कर्मबंध और मिथ्यात्व आदि की यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। जिसको शास्त्रों में बीज और वृक्ष के दृष्टान्त से स्पष्ट किया है। इस परम्परा का अन्त किया जा सकता है किन्तु प्रारम्भ नहीं। इसी से व्यक्ति की अपेक्षा मुक्ति को सादि और संसार को अनादि कहा है। ___जैनदर्शन में द्रव्यकर्म और भावकर्म के रूप में कर्म के जो दो मुख्य भेद किये हैं, वे जाति की अपेक्षा से नहीं हैं, किन्तु कार्य-कारणभाव की अपेक्षा से किये हैं। जैसे मिथ्यात्व आदि भावकर्म ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्मों को आत्मा के साथ संबद्ध कराने के कारण हैं और द्रव्यकर्म कार्य। इसी प्रकार द्रव्यकर्म भी जीव में वैसी योग्यता उत्पन्न करने के कारण बनते हैं, जिससे जीव की मिथ्यात्वादि रूप में परिणति हो। इस प्रकार से द्रव्यकर्म में कारण और भावकर्म में कार्यरूपता स्पष्ट हो जाती है। द्रव्यकर्म पौद्गलिक हैं और पुद्गल अपनी स्निग्ध-रूक्षरूप श्लेष्मयोग्यता के द्वारा सजातीय पुद्गलों से संबद्ध होते रहते हैं। उनमें यह जुड़ने-बिछुड़ने की प्रक्रिया सहज रूप से अनवरत चलती रहती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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