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बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट
१४३ __उत्तरप्रत्ययों की अपेक्षा जो भंग-विकल्प ऊपर बताये हैं और आगे के गुणस्थानों में भी बताये जायेंगे, उनके लाने के लिए केवल काय-अविरति के भेदों की अपेक्षा गुणाकार रूप से संख्या-निर्देश करना पर्याप्त नहीं है, किन्तु उन काय-अविरति के भेदों के जो एकसंयोगी, द्विसंयोगी आदि भंग होते हैं, गुणाकार रूप से उन भंगों की संख्या-निर्देश करना आवश्यक है। तभी सर्व भंगविकल्प प्राप्त होते हैं। इसी दृष्टि से ऊपर भंग निकालने के प्रसंग में कायविराधना सम्बन्धी एकसंयोगी, द्विसंयोगी आदि के बनने वाले भंगों की संख्या का उल्लेख किया है । इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए। ___कायविराधना सम्बन्धी एकसंयोगी आदि षटसंयोगी भंगों के गुणाकार वेसठ होते हैं। जो इस प्रकार से जानना चाहिए-जब कोई जीव क्रोधादि कषायों के वश होकर षट्कायिक जीवों में से एक-एक कायिक जीवों की विराधना करता है, तब एकसयोगी छह भंग होते हैं। जब छह कायिकों में से किन्हीं दो-दो कायिक जीवों की विराधना करता है तब द्विसंयोगी पन्द्रह भंग होते हैं। इसी प्रकार किन्हीं तीन-तीन कायिक जीवों की विराधना करने पर त्रिसंयोगी भंग बीस, चार-चार की विराधना करने पर चतुःसंयोगी भंग पन्द्रह, पांच-पांच की विराधना करने पर पंचसंयोगी भंग छह होते हैं तथा एक साथ छहों कायिक जीवों की विराधना करने पर पटसंयोगी भंग एक होता है। इस प्रकार से उत्पन्न हुये एकसंयोगी आदि भंगों का योग त्रेसठ होता है । जिनका कायविराधना के प्रसंग में यथास्थान उल्लेख किया है और वैसा करने पर उन बंधप्रत्ययों के भंगों की पूरी संख्या प्राप्त होती है।
यद्यपि इन्द्रिय और वेद आदि का सामान्य से उन-उन बंधप्रत्ययों की संख्या में एक से उल्लेख किया है। लेकिन भंगों की पूरी संख्या लाने के लिए इन्द्रिय, वेद आदि की पूरी संख्या रखने पर ही सर्व भंग-विकल्प प्राप्त किये जाते हैं।
अतः भंगों के प्रसंग में उनका उस रूप से निर्देश किया है। । इस प्रकार से मिथ्यात्वगुणस्थान के बंधप्रत्ययों और उनके भंगों तथा
भंग प्राप्त करने की प्रक्रिया का निर्देश करने के अनन्तर अब दूसरे आदि शेष गुणस्थानों के बंधप्रत्ययों और उनके भंगों को बतलाते हैं। Jain Education International
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