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बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२-२३
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मात्र भी अश्रद्धा न करके मन को स्थिर करना दर्शनपरीषहविजय कहलाता है।
ये निषद्या आदि आठों परीषह मोहनीयकर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं। 1 जो इस प्रकार से समझना चाहिये-भय के उदय से निषद्यापरीषह, मान के उदय से याचनापरीषह, क्रोध के उदय से आक्रोशपरीषह, अरति के उदय से अरतिपरीषह, पुरुषवेद के उदय से स्त्रीपरीषह, जुगुप्सामोहनीय के उदय से नाग्न्यपरीषह, लोभ के उदय से सत्कारपुरस्कारपरीषह और दर्शनमोह के उदय से दर्शनपरीषह उत्पन्न होते हैं।
ये सभी पहले क्षुधापरीषह से लेकर बाईसवें दर्शनपरीषह तक बाईसों परीषह रागियों अर्थात् पहले मिथ्यात्वगुणस्थान से लेकर नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान पर्यन्त सभी जीवों में होते हैं । यह कथन सामान्य से जानना चाहिये, लेकिन विशेषापेक्षा एक-एक जीव की अपेक्षा विचार किया जाये तो एक जीव में उन्नीस परीषह होते हैं। क्योंकि शीत और उष्ण, शैया, निषद्या और चर्या ये पांच परीषह परस्पर विरुद्ध होने से एक साथ नहीं होते हैं। इसी कारण एक जीव को एक समय में उन्नीस परीषह होना संभव हैं ।
इस प्रकार बंधहेतु नामक चतुर्थ अधिकार समाप्त हुआ।
१. दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ। चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः ।
तत्त्वार्थ सूत्र ६/१४,१५ २ एकादयो भाज्या युगपदैकोनविंशतेः ।
- तत्त्वार्थसूत्र ६/१७
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