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________________ १२४ पंचसंग्रह : ४ पुरस्कार पद ग्रहण करना चाहिये। वस्त्र, पात्र, आहार-पानी आदि देना 'सत्कार' और विद्यमान गुणों की प्रशंसा करना अथवा प्रणाम, अभ्युत्थान, आसन देना आदि 'पुरस्कार' कहलाता है। सूदीर्घकाल से ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला महातपस्वी, स्वपरसिद्धान्त के रहस्य का वेत्ता, बारम्बार परवादियों का विजेता होने पर भी मुझे कोई प्रणाम नहीं करता है, भक्ति या बहुमान नहीं करता है, आदरपूर्वक आसन नहीं देता है एवं आहार-पानी और वस्त्र आदि भी नहीं देता है, इत्यादि प्रकार के दुष्प्रणिधान-अशुभ संकल्प का त्याग करना सत्कार-पुरस्कारपरीषहजय कहलाता है। ____ मैं समस्त पापस्थानों का त्यागी, उत्कृष्ट तपस्या करने वाला और निःसंग हूँ, फिर भी धर्म और अधर्म के फलरूप देव और नारकों को देख नहीं सकता है। इसलिये उपवास आदि महातपस्या करने वाले को प्रातिहार्य विशेष उत्पन्न होते हैं आदि कथन प्रलापमात्र है, इस प्रकार का मिथ्यात्वमोहनीय के प्रदेशोदय के द्वारा जो अशुभ अध्यवसाय होता है, उसे दर्शनपरीषह कहते हैं। उसका जय इस रीति से करना चाहिये-मनुष्यों की अपेक्षा देव परम सुखी हैं, वर्तमान काल में दुषमकाल के प्रभाव से तीर्थंकर आदि महापुरुष नहीं है, जिससे परम सुख में आसक्त होने से और मनुष्यलोक में कार्य का अभाव होने से मनुष्यों को दृष्टिगोचर नहीं होते हैं और नारक अत्यंत तीव्र वेदना से व्याप्त होने के कारण और पूर्व में बांधे गये दुष्कर्मों के उदयरूप बंधन द्वारा बद्ध होने से आवागमन की शक्ति से विहीन हैं, जिससे वे भी यहाँ आते नहीं हैं। दुषमकाल के प्रभाव से उत्तम संहनन नहीं होने से उस प्रकार के उत्कृष्ट तप करने की शक्ति मुझ में नहीं है और न उस प्रकार के उत्कृष्ट भाव का उल्लास भी होता है कि जिसके द्वारा ज्ञानातिशय उत्पन्न होने से अपने-अपने स्थान में रहे हुए देव, नारकों को देखा जा सके। पूर्व के महापुरुषों में उत्तम संहनन के कारण तपोविशेष की शक्ति और उत्तम भावना थी कि जिससे उत्पन्न हुए ज्ञानातिशय द्वारा वे सब कुछ देख सकते थे। इस प्रकार से विचार करके ज्ञानी के वचन में रंच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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