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________________ १२२ पंचसंग्रह : ४ रूप धर्म में रमणता द्वारा अरति का त्याग करना अरतिपरीषहजय कहलाता है। आराम-बगीचा, घर या इसी प्रकार के अन्य किसी एकान्त स्थान में वास करते, युवावस्था के मद और विलास-हाव-भाव द्वारा प्रमत्त हुईं, मदोन्मत्त और शुभ मनःसंकल्प का नाश करने वाली स्त्रियों के विषय में भी अत्यन्त वशीभूत किया है इन्द्रियों और मन को जिन्होंने ऐसे मुनिराजों का यह अशुचि से भरपूर मांस का पिंड है, इस प्रकार की शुभ भावना के वश उन स्त्रियों के विलास, हास्य, मृदुभाषण, विलासपूर्वक निरीक्षण और मोह उत्पन्न करे उस प्रकार की गति रूप काम के बाणों को निष्फल करना और जरा भी विकार न होने देना स्त्रीपरीषहजय कहलाता है । ___ नग्नता का अर्थ है नग्नत्व, अचेलकत्व और शास्त्र के उपदेश द्वारा वह अचेलकत्व अन्य प्रकार के वस्त्र को धारण करने रूप अथवा जीर्ण अल्पमूल्य वाले, फटे हुए और समस्त शरीर को नहीं ढांकने वाले वस्त्र को धारण करने के अर्थ में जानना चाहिये। क्योंकि वैसे वस्त्र पहने भी हों तो भी लोक में नग्नपने का व्यवहार होता है। जैसे नदी को पार करते पुरुष ने यदि अधोवस्त्र (धोती आदि) को शिर पर लपेटा हो तो भी नग्न जैसा व्यवहार होता है तथा जिससे जीर्णवस्त्र पहन रखा हो ऐसी कोई स्त्री बुनकर से कहे कि हे बुनकर ! मुझे साड़ी दो, मैं नंगी हूँ ! उसी प्रकार जीर्ण-शीर्ण अल्पमूल्य वाले और शरीर के अमुक भाग को ढांकने वाले वस्त्रों के धारक मुनिराज भी वस्त्र सहित होने पर भी वास्तव में अचेलक माने जाते हैं। जब ऐसा है तो उत्तम धैर्य और उत्तम सहनन से विहीन इस युग के साधुओं का भी संयम पालन करने के निमित्त शास्त्रोक्त वस्त्रों के धारण करने को अचेलपरीषह का सहन करना सम्यक् प्रकार से जानना चाहिये। उक्त कथन को आधार बनाकर तार्किक अपनी आशंका उपस्थित करता हैJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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