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________________ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२-२३ १२१ शेष रहे आठ परीषहों में पहली परीषह है-निषद्या। निषद्या उपाश्रय को कहते हैं । अर्था । 'निषीदन्ति अस्याम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार साधु जिसके अन्दर स्थान करते हैं, वह निषद्या कहलाती है । स्त्री, पशु और नपुंसक से विहीन और जिसमें पहले स्वयं रहे नहीं ऐसे श्मशान, उद्यान, दानशाला या गुफा आदि में वास करते हुए और सर्वत्र अपने इन्द्रियजन्य ज्ञान के प्रकाश द्वारा परीक्षित प्रदेश में अनेक प्रकार के नियमों और क्रियाओं को करते हुए सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं की भयंकर शब्दध्वनियों-स्वर-गर्जनाओं के सुनाई देने पर भी जिनको भय उत्पन्न नहीं हुआ है, ऐसे मुनिराजों का उपस्थित उपसर्गों को सहन करने पूर्वक मोक्षमार्ग से च्युत न होना निषद्यापरीषहजय कहलाता है। बाह्य और आभ्यन्तर तपोनुष्ठान में परायण, दीन वचन और मुख पर ग्लानि का त्याग करके आहार, वसतिका--स्थान, वस्त्र, पात्र और औषधि आदि वस्तुओं को प्रवचनोक्त विधि के अनुसार याचना करते मुनिराजों का-साधु का सभी कुछ मांगा हुआ होता है, अयाचित कुछ भी नहीं होता है, इस प्रकार का विचार करके लघुताजन्य अभिमान को सहन करना अर्था मेरी लघुता-हीनता दिखेगी, ऐसा जरा भी अभिमान उत्पन्न नहीं होने देना याचनापरीषहजय कहलाता है । क्रोधरूप अग्नि-ज्वाला को उत्पन्न करने में कुशल, मिथ्यात्वमोह के उदय से मदोन्मत्त पुरुषों द्वारा उच्चारित-कहे गये ईर्ष्यायुक्त, तिरस्कारजनक और निन्दात्मक वचनों को सुनने पर भी तथा उनका प्रतिकार करने में समर्थ होने पर भी क्रोधादि कषायोदय रूप निमित्त से उत्पन्न हुए पापकर्म का विपाक अत्यन्त दुरन्त है, ऐसा चिन्तन करते हुए अल्पमात्रा में भी कषाय को अपने हृदय में स्थान न देना आक्रोशपरीषहविजय कहलाता है। सूत्र (शास्त्र) के उपदेशानुसार विहार करते अथवा रहते किसी समय यदि अरति उत्पन्न हो तो भी स्वाध्याय, ध्यान, योग और भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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