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________________ १०५ बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ सब मिलाकर ( २४ +२४+२४+२४=६६ ) छियानवे भंग होते हैं । और दोनों गुणस्थानों में अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के कुल मिलाकर (६४+६६=१६०) एक सौ साठ भंग जानना चाहिये । पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के बंधहेतु के भंग पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के जघन्यपद में अनन्तरोक्त (ऊपर अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के मिथ्यात्वगुणस्थान में कहे गये) सोलह बंधहेतु हैं । यहाँ मात्र औदारिक, वैक्रिय और वैक्रियमिश्र इन तीन योगों में से अन्यतर एक योग कहना चाहिये । क्योंकि पर्याप्त बादर वायुकाय में से कितने हो जीवों के वैक्रियशरीर होता है । अतः योग के स्थान पर तीन का अंक रखकर इस प्रकार अंकस्थापना करनी चाहियेमिथ्यात्व इन्द्रिय- अविरति कायवध कषाय युगल वेद योग २ १ ३ १ १ ४ १ इन अंकों का क्रमशः गुणा करने पर सोलह बंधहेतुओं के चौबीस (२४) भंग होते हैं । इन सोलह में भय को मिलाने पर सत्रह बंधहेतु होते हैं। इनके भी चौबीस भंग जानना चाहिये । २. अथवा जुगुप्सा का प्रक्षेप करने से भी सत्रह बंधहेतु होते हैं । इनके भी चौबीस (२४) भंग होते हैं । उक्त सोलह हेतुओं में भय - जुगुप्सा को युगपत् मिलाने पर अठारह हेतु होते हैं । इनके भी चौबीस (२४) भंग होंगे और कुल मिलाकर (२४+२४+२४+२४ = ९६ ) छियानवे भंग जानना चाहिये और अपर्याप्त, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के बंधहेतुओं के कुल मिलाकर (१६०+ε६=२५६) दो सौ छप्पन भंग होते हैं । इस प्रकार से बादर एकेन्द्रिय के बंधहेतुओं और उनके भंगों का निर्देश करने के बाद अब पूर्व कथनशैली का अनुसरण करके पर्याप्त अपर्याप्त में से पहले अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय के बंधहेतु और उनके भंगों का निर्देश करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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