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________________ १०२ पंचसंग्रह : ४ कर अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के सासादनगुणस्थान में (३२+३२+३२+ ३२=१२८) एक सौ अट्ठाईस भंग होते हैं। मिथ्या दृष्टि अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के पूर्वोक्त पन्द्रह बंधहेतुओं में मिथ्यात्व के मिलाने पर सोलह होते हैं। यहाँ योग कार्मण, औदारिकमिश्र और औदारिक ये तीन होते हैं। अतः योग के स्थान पर तीन का अंक रखकर इस प्रकार अंकस्थापना करना चाहियेमिथ्यात्व कायवध इन्द्रिय-अविरति युगल वेद कषाय योग इन अंकों का पूर्ववत् अनुक्रम से गुणा करने पर मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के सोलह बंधहेतु के अड़तालीस (४८) भंग होते हैं। १. इन सोलह बंधहेतुओं में भय का प्रक्षेप करने पर सत्रह हेतु होते हैं । इनके भी अड़तालीस (४८) भंग जानना चाहिये। २. अथवा जुगुप्सा के मिलाने पर भी सत्रह हेतु होते हैं । इनके भी पूर्ववत् अड़तालीस (४८) भंग होते हैं। उक्त सोलह हेतुओं में युगपत् भय-जुगुप्सा का प्रक्षेप करने पर अठारह हेतु होते हैं । इनके भी अड़तालीस (४८) भंग जानना चाहिये और सब मिलाकर (४८+४८+४+४८=१६२) एक सौ बानवै भंग होते हैं। दोनों गुणस्थानों में द्वीन्द्रिय अपर्याप्त के बंधहेतुओं के कुल मिलाकर (१२८+१९२=३२०) तीन सौ बीस भंग होते हैं। पर्याप्त द्वीन्द्रिय के बंधहेतु के भंग पर्याप्त द्वीन्द्रिय के अनन्तरोक्त (मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के लिए कहे गये) सोलह बंधहेतु होते हैं। यहाँ औदारिक काययोग और असत्यामृषा वचनयोग इन दो योगों के होने से योग के स्थान पर दो का अंक रखकर इस प्रकार अंकस्थापना करना चाहिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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