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________________ १०० पंचसंग्रह : ४ पर तीन के अंक की स्थापना करना चाहिये । अंकस्थापना का रूप इस प्रकार है मिथ्यात्व कायवध इन्द्रिय- अविरति युगल वेद कषाय योग २ १ ४ ३ १ १ ३ इन अंकों का क्रमशः गुणा करने पर सोलह बंधहेतुओं के बहत्तर ( ७२ ) भंग होते हैं । १. इन सोलह हेतुओं में भय को मिलाने पर सत्रह बंधहेतु होंगे । जिनके पूर्ववत् बहत्तर (७२) भंग जानना चाहिये । २. अथवा जुगुप्सा का प्रक्षेप करने पर होने वाले सत्रह बंधहेतुओं के पूर्ववत बहत्तर (७२) भंग जानना चाहिये । उक्त सोलह हेतुओं में युगपत् भय-जुगुप्सा को मिलाने पर अठारह हेतु होते हैं । इनके भी पूर्ववत् बहत्तर भंग होते हैं और कुल मिलाकर अपर्याप्त त्रीन्द्रिय मिथ्यादृष्टि के ( ७२+७२+७२+७२=२८८) दो सौ अठासी भंग होते हैं तथा दोनों गुणस्थान के बंधहेतु के कुल भंग (१६२+२८८४८०) चार सौ अस्सी हैं । पर्याप्त त्रीन्द्रिय के बंधहेतु के भंग पर्याप्त त्रीन्द्रिय के पर्याप्त चतुरिन्द्रिय की तरह जघन्यपद में सोलह बंधहेतु होते हैं । मात्र तीन इन्द्रिय की अविरति में से अन्यतर एक इन्द्रिय की अविरति समझना चाहिये । शेष सभी कथन पर्याप्त चतुरिन्द्रियवत् जानना चाहिये। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि यहाँ अंकस्थापना का रूप यह होगा १ १ ३ मिथ्यात्व कायवध इन्द्रिय-अविरति युगल कषाय वेद योग २ ४ १ २ इन अंकों का परस्पर गुणा करने पर अड़तालीस (४८) भंग होते हैं । १. इन सोलह में भय को मिलाने पर सत्रह बंधहेतु होते हैं । इनके भी अड़तालीस (४८) भंग होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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