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पंचसंग्रह ४
१६ = ३८४ ) तीन सौ चौरासी भंग होते हैं और दोनों गुणस्थानों के कुल मिलाकर ( २५६ + ३८४ =६४०) छह सौ चालीस भंग होते हैं । पर्याप्त चतुरिन्द्रिय के बंधहेतु के भंग
पर्याप्त चतुरिन्द्रिय के एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है । इसके जघन्यपद में सोलह बंधहेतु होते हैं । वे इस प्रकार जानना चाहियेमिथ्यात्व एक, छह काय का वध एक, चार इन्द्रियों की अविरति में से अन्यतर एक इन्द्रिय की अविरति युगलद्विक में से एक युगल, अनन्तानुबंध क्रोधादि में से अन्यतर क्रोधादि चार कषाय, नपुंसकवेद और औदारिक काययोग तथा असत्यामृषा वचनयोग ये दो योग । जिनकी अंकस्थापना इस प्रकार होगी
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मिथ्यात्व कायवध इन्द्रिय-अविरति युगल कषाय वेद योग
१
१
४
२ ४
१ २
इन अकों का क्रमशः गुणा करने पर सोलह बंधहेतुओं के चौंसठ भंग होते हैं ।
९. इन सोलह बंध हेतुओं में भय का प्रक्षेप करने पर सत्रह बंधहेतु होते हैं । इनके भी पूर्व की तरह चौंसठ (६४) भंग जानना चाहिये ।
२. अथवा जुगुप्सा को मिलाने पर भी सत्रह बंधहेतु होते हैं । इनके भी चौंसठ भंग होंगे ।
पूर्वोक्त सोलह बंधहेतुओं में युगपत् भय-जुगुप्सा को मिलाने पर अठारह हेतु होते हैं। इनके भी चौंसठ (६४) भंग जानना चाहिये ।
इस प्रकार चतुरिन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि के बंधहेतुओं के कुल मिलाकर (६४+६४÷६४+६४=२५६ ) दो सौ छप्पन भंग होते हैं ।
चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त और पर्याप्त दोनों के बंधहेतुओं के कुल मिलाकर ( २५६ + ३८४ + २५६ = ८६६ ) आठ सौ छियानवे भंग जानना चाहिये ।
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