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पंचसंग्रह : ४
अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय के बंधहेतुओं के भंग
अब चतुरिन्द्रिय के बंधहेतुओं के भंगों को बतलाते हैं।
अपर्याप्त और पर्याप्त के भेद से चतुरिन्द्रिय जीवों के दो प्रकार हैं। उनमें से पहले अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय जीवों के बंधहेतुओं के भंगों को बतलाते हैं कि इनको सासादनगुणस्थान में जघन्यतः पन्द्रह बंधहेतु होते हैं । जो इस प्रकार हैं-छह काय का वध, चार इन्द्रियों की अविरति में से एक इन्द्रिय की अविरति, युगलद्विक में से एक युगल तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय के सिबाय शेष सभी संसारी जीव परमार्थतः नपुसकवेदी हैं मात्र असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में स्त्री और पुरुष का आकार होने से उस आकार की अपेक्षा वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी भी माने जाते हैं। जिससे असंज्ञियों में तीन वेद बतलाये हैं। चतुरिन्द्रिय जीवों में एक नपुसकवेद ही समझना चाहिये । अतः वेद एक तथा अनन्तानुबंधी क्रोधादि में से कोई भी क्रोधादि चार कषाय, कार्मण और औदारिकमिश्र काययोग में से एक योग । - इनकी अंकस्थापना में कायस्थान पर एक रखना चाहिये। क्योंकि षट्काय की हिंसा का षट्संयोगी भंग एक हो होता। इन्द्रिय-अविरित के स्थान पर चार, युगल के स्थान पर दो, वेद के स्थान पर एक, कषाय के स्थान पर चार और योग के स्थान पर दो का अंक रखना चाहिये । अंकस्थापना का रूप इस प्रकार का होगा
कायवध इन्द्रिय-अविरति युगल वेद कषाय योग
इन अंकों का गुणकार इस प्रकार करना चाहिये-चारों इन्द्रिय की अविरति एक एक युगल के उदय वाले के होती है । इसलिये इन्द्रियअविरति को युगलद्विक से गुणा करने पर (४+२=८) आठ होते हैं । ये आठों क्रोधादि कोई भी एक एक कषाय के उदय वाले हैं । अतः आठ को चार से गुणा करने पर (८ x ४ =३२) बत्तीस हुए । ये बत्तीस भी एक एक योग वाले हैं । इसलिये उनका दो से गुणा करने पर
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