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________________ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३ ७५ इस प्रकार प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थानों की विशेषता बतलाने के बाद अब उनके बंधहेतुओं और भंगों का विचार करते हैं। प्रमत्तसंयतगुणस्थान में पांच से सात बंघहेतु होते हैं। उनमें से जघन्यपदभावी बंधहेतु इस प्रकार हैं- सर्वथा पापव्यापार का त्याग होने से मिथ्यात्व और अविरति इन दोनों के सर्वथा नहीं होने के कारण कषाय और योग यही दो हेतु होते हैं । इसलिये युगल द्विक में से एक युगल, वेदत्रिक में से एक वेद, चार संज्वलन कषाय में से एक क्रोधादिक कषाय और कार्मण तथा औदारिकमिश्र इन दो योगों के बिना शेष तेरह योगों में से एक योग इस प्रकार पांच बंधहेतु होते हैं। इनकी अंकस्थापना का प्रारूप इस प्रकार है वेद योग युगल कषाय इस प्रकार से अंकस्थापना करके क्रमशः गुणा करना चाहिये । गुणाकार इस प्रकार करना चाहिये-पहले तीन वेदों के साथ तेरह योगों का गुणा करने पर उनतालीस (३६) हुए। उनमें से दो रूप कम करने पर शेष (३७) सैंतीस को युगलद्विक से गुणा करने पर (३७४२ =७४) चौहत्तर हुए। इन चौहत्तर को चार कषाय के साथ गुणा करने पर (७४ x ४=२९६) दौ सौ छियानवै भंग होते हैं। शरीरों के योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण कर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में जाने वाले होने से वहाँ वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र ये दो योग नहीं होते हैं। क्योंकि आरम्भकाल और त्यागकाल में मिश्रपना होता है और उन दोनों समयों में प्रमत्तगुणस्थान ही होता है। इसलिये अप्रमत्तगुणस्थान में एक भंग कम करने का संकेत किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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