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पंचसंग्रह : ३
पृथ्वीकाय आदि जीवों में एक प्रकार के बादर परिणाम को उत्पन्न करता है, जिससे उनके शरीर समुदाय में एक प्रकार की अभिव्यक्ति हो जाती है और वे शरीर दृष्टिगोचर होते हैं । किन्तु जिन्हें इस कर्म का उदय नहीं होता है, ऐसे सूक्ष्म जीव समुदायरूप में भी एकत्रित हो जायें तो भी दृष्टिगोचर नहीं होते हैं ।
बादर और सूक्ष्म नामकर्म ये दोनों प्रकृतियां जीवविर्पाकनी प्रकृतियां हैं । जो शरीर के पुद्गलों के माध्यम से जीव में बादर और सूक्ष्म परिणाम उत्पन्न करती हैं । इनको जीवविपाकिनी प्रकृति होने पर भी शरीर के पुद्गलों के माध्यम से अभिव्यक्ति होने का कारण यह है कि जैसे क्रोध के जीवविपाकिनी प्रकृति होने पर भी उसका उद्र ेक -- भौंह का टेढ़ा होना, आंखों का लाल होना, ओठों की फड़फड़ाहट इत्यादि परिणाम - बाह्य लक्षणों द्वारा प्रगट रूप में दिखलाई देता है, उसी प्रकार इनका भी शरीर में प्रभाव दिखाना विरुद्ध नहीं है । सारांश यह है कि कर्मशक्ति विचित्र है । इसलिये बादरनामकर्म तो पृथ्वी काय आदि जीवों में एक प्रकार के बादर परिणाम को उत्पन्न कर देता है, जिससे उनके शरीरसमुदाय में एक प्रकार की अभिव्यक्ति प्रगट हो जाती है और वे शरीर दृष्टिगोचर होने लगते हैं। लेकिन सूक्ष्म नामकर्मोदय वाले जीवों में वैसी अभिव्यक्ति प्रगट नहीं हो पाती है ।
पर्याप्त अपर्याप्त - जिस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने में समर्थ होता है, वह पर्याप्तनामकर्म है। इससे विपरीत अपर्याप्तनामकर्म है कि जिसके उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियों के निर्माण करने में समर्थ नहीं होता है ।
पर्याप्त जीवों के दो भेद हैं- (१) लब्धि - पर्याप्त और ( २ ) करणपर्याप्त | इसी प्रकार अपर्याप्त जीवों के भी दो भेद हैं- ( १ ) लब्धि - अपर्याप्त और ( २ ) करण - अपर्याप्त ।
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