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पंचसंग्रह : ३
शीत और उष्ण के भेद से आठ प्रकार का है। इस स्पर्श का कारणभूत नामकर्म भी आठ भेद वाला है। उनमें से जिसके उदय से प्राणियों के शरीरों में पाषाण आदि के समान कर्कशता उत्पन्न होती है, वह कर्कश नामकर्म है। इसी प्रकार शेष स्पर्श नामकर्मों का अर्थ समझ लेना चाहिए । शरीर में तता प्रकार का स्पर्श होने में स्पर्श नामकर्म कारण है।1 __आनुपूर्वी-कूर्पर, लांगल और गोमूत्रिका के आकार रूप से क्रमशः दो, तीन और चार समय प्रमाण विग्रह द्वारा एक भव से दूसरे भव में जाते जीव की आकाशप्रदेश की श्रेणी के अनुसार जो गति होती है उसे आनुपूर्वी कहते हैं। उस प्रकार के विपाक द्वारा वेद्य यानी उस प्रकार के फल का अनुभव कराने वाली जो कर्मप्रकृति वह आनुपूर्वी नामकर्म है। वह चार प्रकार की है-(१) नरकगत्यानुपूर्वी, (२) तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, (३) मनुष्यगत्यानुपूर्वी और (४) देवगत्यानुपूर्वी । उनमें से जिस कर्म के उदय से वक्रगति के द्वारा नरक में जाते हुए जीव की आकाशप्रदेश की श्रेणी के अनुसार गति होती है, उसे नरकगत्यानुपूर्वी नामकर्म कहते हैं । इसी प्रकार शेष तीन आनुपूर्वी नामकर्म का अर्थ समझ लेना चाहिए। विग्रहगति के सिवाय जीव इच्छानुकूल चाहे जैसा जा सकता है परन्तु विग्रहगति में तो आकाशप्रदेश की
१ वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श नामकर्म की सभी प्रकृतियां ध्र वोदया होने से
प्रत्येक जीव के प्रतिसमय उदय में होती हैं। जिससे यह शंका हो सकती है कि श्वेत और कृष्ण ऐसी परस्पर विरोधी प्रकृतियों का एक साथ उदय कैसे हो सकता है ? तो इसका उत्तर यह है कि ये सभी प्रकृतियां शरीर के अमुक-अमुक भाग में अपना-अपना कार्य करके कृतार्थ होती हैं । जैसेकि बालों का वर्ण कृष्ण, खून का लाल, दांत आदि का श्वेत, पित्त का पीला या हरा वर्ण होता है । इसी प्रकार गंध आदि के लिए भी समझ लेना चाहिये।
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