________________
बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६
३१] तत्तत् शरीरों की प्राप्ति में औदारिक आदि नामकर्म कारण हैं। जिसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है___तत्त । शरीरनामकर्म का उदय होने पर उस-उस शरीर के योग्य लोक में विद्यमान पुद्गलों को ग्रहण करके उनको उस शरीर रूप में परिणत करना शरीरनामकर्म का कार्य है। जैसेकि औदारिक शरीरनामकर्म का उदय होने पर औदारिकवर्गणा में से पुद्गलों को ग्रहण करके जीव उन्हें औदारिक रूप परिणमित करता है। कर्म कारण है और शरीर कार्य है। कर्म कार्मणवर्गणा का परिणाम है और औदारिकादि शरीर औदारिक आदि वर्गणाओं के परिणाम हैं।
औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस नामकर्म का उदय होता है तब औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस वर्गणाओं में से पुद्गलों को ग्रहण करके तत्तन् शरीर का निर्माण होता है। इसी प्रकार कार्मण शरीरनामकर्म के द्वारा कार्मणवर्गणा में से पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें कर्मरूप से परिणत किया जाता है।
यद्यपि कार्मणशरीरनामकर्म भी कर्मवर्गणाओं का परिणाम है और कार्मणशरीर भी कार्मणवर्गणाओं से ही बना हुआ है। जिससे ये दोनों एक जैसे मालूम पड़ते हैं। परन्तु वैसा नहीं है, दोनों भिन्न-भिन्न हैं । कार्मणशरीरनामकर्म, नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों में से एक प्रकृति है और कार्मणवर्गणाओं को ग्रहण करने में हेतु है। जब तक कार्मणशरीरनामकर्म का उदय है, तब तक ही कार्मणवर्गणाओं में से कर्मयोग्य पद्गलों को आत्मा ग्रहण कर सकती है तथा आत्मा के साथ एकाकार हुई आठों कर्मों की अनन्त वर्गणाओं के पिंड का नाम कार्मणशरीर है। कार्मणशरीर अवयवी है और कर्म को प्रत्येक उत्तरप्रकृतियां उसकी अवयव हैं। कार्मणशरीरनामकर्म बंध में से आठवें गुणस्थान के छठे भाग में, उदय में से तेरहवें गुणस्थान में और सत्ता में से चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में विच्छेद को प्राप्त होता है। जबकि कार्मणशरीर का सम्बन्ध चौदहवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org