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________________ पंचसंग्रह : ३ गाथार्थ-मति, श्रुत, अवधि, मनपर्याय और केवल ज्ञान का जो आवरण है, वह पहला (ज्ञानावरण) कर्म है तथा दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य का अवरोधक अन्तिम अन्तरायकर्म जानना चाहिए। विशेषार्थ-समान स्थिति और प्रकृतियों की समान संख्या होने से गाथा में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म की पांच-पांच प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं। उनमें से ज्ञानावरण की पांच प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं १ मतिज्ञानावरण, २ श्र तज्ञानावरण, ३ अवधिज्ञानावरण, ४ मनपर्यायज्ञानावरण और ५ केवलज्ञानावरण 11 ____ मति, श्रुत आदि पांच ज्ञानों का स्वरूप पहले योगोपयोगमार्गणा अधिकार में और आवरण का स्वरूप पहले कहा है । अतएव मतिज्ञान और उसके अन्तर्भेदों को आच्छादित करने वाले कर्म को मतिज्ञानावरण तथा श्रु तज्ञान और उसके अवान्तर भेदों को आवृत करने वाले कर्म को श्रुतज्ञानावरणकर्म कहते हैं । इसी प्रकार अवधिज्ञानावरण, मनपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण कर्मों का स्वरूप समझ लेना चाहिए । ज्ञानावरणकर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आवृत करता है। इस प्रकार से ज्ञानावरणकर्म की पांच उत्तर प्रकृतियों के लक्षण जानना चाहिए। अब तत्समसंख्यक और समान स्थिति वाले कर्म अन्तराय की पांच प्रकृतियों का स्वरूप बतलाते हैं। १ (क) मदि-सुद-ओही-मणपज्जव-केवलणाण आवरणमेवं । पंचवियप्पं णाणावरणीयं जाण जिणभणियं । -दि. कर्मप्रकृति ४२ (ब) मतिश्र तावधिमनःपर्ययकवलानां । अथवा-प्रत्यादीनाम् । तत्त्वार्थसूत्र ८।६,७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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