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[ १६ ] प्रशस्तपाद और न्यायमंजरीकार का भी ऐसा ही मंतव्य है........ अधर्म सहित प्रवृत्ति मूलक धर्म से देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकों में (जन्म लेकर) वारंवार संसार बंध को करता रहता है। ...... संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं है जो धर्म या अधर्म से व्याप्त न हो।
विभिन्न दार्शनिकों का कर्म के सम्बन्ध में उक्त प्रकार का दृष्टिकोण है । इसके अतिरिक्त वैशेषिक आदि कर्म को चेतननिष्ठ मानकर उसे चेतनधर्म बतलाते हैं और सांख्य-योग उसे अन्तःकरण स्थित मानकर जड़धर्म कहते हैं।
कर्म को मानते हुए भी उन-उन दर्शनों में कर्म के स्वरूप को लेकर इतनी मतभिन्नतायें होने का कारण यही है कि उन्होंने कर्मसिद्धान्त का विहंगावलोकन करने तक अपने आपको सीमित कर लिया। लेकिन जैनदर्शन के मतानुसार कर्म का स्वरूप उक्त मतों से भिन्न है। उसने कर्म का स्वरूप एकान्ततः न तो चेतननिष्ठ और न अचेतननिष्ठ माना है। अपनी प्रक्रिया के अनुसार कर्म को चेतन और जड़ उभय के परिणामरूप से उभयरूप माना है। इसी कारण जैनदर्शन के अनुसार कर्म के दो प्रकार हैं-१ द्रव्यकर्म और २ भावकर्म ।
यद्यपि अन्य दर्शनों में भी इस प्रकार का विभाग पाया जाता है और भाबकर्म की तुलना अन्यदर्शनों के संस्कार के साथ और द्रव्यकर्म को तुलना योगदर्शन की वृत्ति और न्यायदर्शन की प्रवृत्ति के साथ की जा सकती है । तथापि जैनदर्शन और अन्य दर्शनों के मान्य कर्म के स्वरूप में बहुत अन्तर है । जैनदर्शन ने कर्म को केवल एक संस्कार मात्र ही नहीं माना है किन्तु वह एक वस्तुभूत, यथार्थ पदार्थ भी है जो राग द्वषयुक्त जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ उसी तरह एकमेक घुल-मिल जाता है, जैसे दूध और पानी । वह पदार्थ है तो भौतिक, किन्तु उसका कर्म नाम इसलिये है कि वह जीव के अर्थात्
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