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(१०) पंचसंग्रह ३: परिशिष्ट २
८- रसविपाका प्रकृतियां-हेतुविपाक की तरह रप्तविपाक की अपेक्षा भी प्रकृतियों के चार प्रकार हैं-(१) एकस्थानक, (२) द्विस्थानक, (३) त्रिस्थानक, (४) चतुःस्थानक । सभी शुभ और अशभ प्रकृतियों में सामान्य से द्वि०-त्रि०-चतुःस्थानक रसबंध होता है । लेकिन श्रेणि पर आरूढ़ होने के पश्चात निम्नलिखित प्रकृतियों में एकस्थानक रस भी पाया जाता है । उनके नाम इस प्रकार हैं-मतिज्ञानावरणादि चतुष्क, चक्षुदर्शनावरणादि त्रिक, संज्वलनकषायचतुष्क, पुरुषवेद, अंतरायपंचक । ये कुल सत्रह प्रकृतियां हैं। इसीलिये इन सत्रह प्रकृतियों को चतुःस्थानपरिणत कहते हैं।
६ -- आयुचतुष्क उदयबंधोत्कृष्टा आदि क्यों नहीं-आयुकर्म में परस्पर संक्रम होता नहीं तथा पूर्वबद्ध आयुकर्म के दलिक बद्धयमान आयु के उपचय के लिये भी कारण नहीं हैं । पूर्वबद्ध और बद्धयमान दोनों प्रकार की आयु स्वतन्त्र हैं। जिससे आयुचतुष्क का उदयबंधोत्कृष्टटा, अनुदयबंधोत्कृष्टा, उदयसंक्रमोत्कृष्टा, अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा इन चार वर्गों में से किसी में भी ग्रहण नहीं होता है । यद्यपि देव, नरकायु परमार्थतः अनुदयबंधोत्कृष्टा हैं। क्योंकि ये अपने अनुदयकाल में बंधती हैं। परन्तु प्रयोजन के अभाव में पूर्वाचार्यों ने चार में से किसी भी वर्ग की विवक्षा नहीं की है।
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