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पंचसंग्रह : ३
का कारण होने से पंचेन्द्रिय की अवान्तर जाति के रूप में मानना पड़ेगा और फिर गतिनामकर्म मानने की आवश्यकता नहीं रहेगी। ___ उत्तर-अपकृष्ट चैतन्य आदि के नियामक रूप में एकेन्द्रियत्वादि जाति की सिद्धि होती है । यानि पंचेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय का चैतन्य अल्प (अल्प क्षयोपशम रूप), चतुरिन्द्रिय से त्रीन्द्रिय का अल्प, इस प्रकार से चैतन्य की व्यवस्था में एकेन्द्रियत्वादि जाति हेतु है एवं इसी प्रकार के शब्दव्यवहार का कारण भी जाति ही है, जिससे उसके कारण रूप में जातिनामकर्म सिद्ध है। नारकत्व आदि जाति नहीं है, क्योंकि तिर्यंचत्व का पंचेन्द्रियत्व के साथ सांकर्य1 बाधक है, नारकत्व आदि जो गति है, वह अमुक प्रकार के सुख-दुःख के उपभोग में नियामक है और उसके कारण रूप में गतिनामकर्म भी सिद्ध है।
तात्पर्य यह कि गतिनामकर्म सुख-दुःख के उपभोग का नियामक है और जातिनामकर्म न तो द्रव्ये न्द्रिय का और न भावेन्द्रिय का कारण है। क्योंकि द्रव्येन्द्रियां अंगोपांगनामकर्म एवं इन्द्रियपर्याप्तिजन्य हैं और भावेन्द्रियों का हेतु मतिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम है। परन्तु एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों के उत्तरोत्तर चैतन्य-विकास का नियामक है कि एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय में चैतन्य का विकास अधिक होता है, द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय में अधिक आदि, ऐसी व्यवस्था होना जातिनामकर्म का कार्य है।
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१ भिन्न-भिन्न अधिकरण में रहने वाले धर्म का एक में जो समावेश होता है,
उसे संकर दोष कहते हैं।
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