SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२ १६६ सायों का परावर्तन हो जाने से नहीं बंधती हैं, परन्तु उनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियां बंधती हैं । इसीलिए ये प्रकृतियां सान्तरबंधिनी कहलाती हैं। ___ इस प्रकार से निरन्तरबंधिनी आदि प्रकृतियां जानना चाहिये ।। अब उदयबंधोत्कृष्टादि प्रकृतियों को बतलाने के पूर्व उनके लक्षण कहते हैं। उदयबंधोत्कृष्टादि के लक्षण उदए व अणुदए वा बंधाओ अन्नसंकमाओ वा। ठिइसंतं जाण भवे उक्कोसं ता तयक्खाओ ॥६२।। शब्दार्थ---उदए-उदय, व-अथवा, अणुदए-उदय न होने, वाअथवा. बंधाओ-बंध द्वारा, अन्नसंकमाओ---अन्य के संक्रम द्वारा, वाअथवा, ठिइसंत-स्थिति की सत्ता, जाण-जिनकी, भवे-होती है, उक्कोसंउत्कृष्ट, ता-वे, तयक्खाओ-उस नाम वाली कहलाती हैं । ___ गाथार्थ-बंध द्वारा अथवा अन्य के संक्रम द्वारा उदय होने १ दिगम्बर कर्मग्रन्थों (गो. कर्मकाण्ड गाथा ४०४-४०७ तथा पंचसंग्रह कर्म स्तवचूलिका गा० ७४-७७) में निरन्त रबंधिनी आदि प्रकृतियों के नामों का उल्लेख इस प्रकार किया है.---- ___ ज्ञानावरणपंचक आदि सैतालीस ध्र वप्रकृतियां, तीर्थकरनाम, आहारकद्विक और आयुचतुष्क--ये चउवन प्रकृतियां निरंतर बंध वाली हैं । नरकगतिद्विक, एकेन्द्रिय आदि जातिचतुष्क, अन्तिम पांच संहनन और पांच संस्थान, अप्रशस्तविहायोगति, आतप, उद्योत, स्थावरदशक, असातावेदनीय, नकवेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, ये चौंतीस प्रकृतियां सांतरबंधिनी हैं तथा देवगति द्विक, मनुष्यगति द्विक, तिर्यंचगतिद्विक, औदारिकद्विक, वैक्रियशरीरद्विक, प्रशस्तविहायोगति, वज्रऋषभनाराचसंहनन, पराघातयुगल, समचतुरस्रसंस्थान, पंचेन्द्रियजाति, सदशक, सातावेदनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद और गोत्र द्विक ये बत्तीस प्रकृतियां सान्तर-निरन्तरबंधिनी हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy