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________________ बधय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६, ६०, ६१ तथा जिन प्रकृतियों का एक समय से आरम्भ होकर अन्तर्मुहूर्त से भी अधिक समय तक बंध होता हो वे सान्तर - निरन्तरा और जिन प्रकृतियों का जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त बंध होता हो वे निरन्तरा कहलाती हैं । विशेषार्थ - बंधयोग्य एक सौ बीस प्रकृतियों का सांतर आदि तोन वर्गों में वर्गीकरण करके प्रत्येक वर्ग में संकलित प्रकृतियों के नाम और वर्गों के लक्षण इन तीन गाथाओं में बतलाये हैं । सर्वप्रथम निरन्तरबंधिनी प्रकृतियों को बतलाते हैं । निरन्तर बंधिनी -- जिन प्रकृतियों का जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त बंध होता है, अन्तर्मुहूर्त तक बंध में अन्तर नहीं पड़ता वे प्रकृतियां निरन्तरबंधिनी कहलाती हैं। ऐसी प्रकृतियां बावन हैं । जिनके नाम हैं 'धुवबंधिणी' इत्यादि अर्थात् ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, अंतरायपंचकै, सोलह कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, निर्माण, तेजस, कार्मण, उपघात और वर्णचतुष्क ये सैंतालीस ध वबंधिनी प्रकृतियां तथा तीर्थंकरनाम और आयुचतुष्क, कुल मिलाकर बावन प्रकृतियां निरन्तरबंधिनी हैं। इन बावन प्रकृतियों को निरन्तरबंधिनो मानने का कारण यह है कि ये प्रकृतियां जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निरंतर बंधती हैं । इस काल में किसी प्रकार का अन्तर नहीं पड़ता है । इसीलिये ये निरन्तरबंधिनी प्रकृतियां कहलाती हैं । १६७ निरन्तरबंधिनी प्रकृतियों को बतलाने के बाद अब सांतर - निरन्तरबंधिनी प्रकृतियों को बतलाते हैं । सान्तर - निरन्तर बंधिनी - जिन प्रकृतियों का जघन्य समयमात्र बंध होता हो और उत्कृष्ट एक समय से प्रारम्भ कर निरन्तर अन्तमुहूर्त से ऊपर असंख्यात काल पर्यन्त बंध होता हो, उनको सान्तरनिरन्तरबंधिनी प्रकृति कहते हैं । ऐसी प्रकृतियां सत्ताईस हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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