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पंचसंग्रह : ३
इस प्रकार से शुभ प्रकृतियों के द्विस्थानक रसबंध के कारण को स्पष्ट करने के बाद अब जिज्ञासु द्वारा सत्ता के सम्बन्ध में प्रस्तुत प्रश्न का समाधान करते हैं। सत्ताविषयक प्रश्न का समाधान
दुविहमिह संतकम्मं धुवाधुवं सूइयं च सद्दे ण । धुवसंतं चिय पढमा जओ न नियमा विसंजोगो ॥५५॥
शब्दार्थ-दुविहं-दो प्रकार, इह-यहाँ, संतकम्म-कर्मों की सत्ता, धुवाधुवं-ध्र व और अध्र व, सूइयं--सूचित की है-बताई है. च सण-च शब्द से, धुवसंतं-ध्र वसत्ता. चिय-अवश्य, पढमा-प्रथम, जओ-क्योकि, ननहीं, नियमा--नियम से, विसंजोगी--विसंयोजना।
गाथार्थ-च शब्द द्वारा सत्ताद्वार गाथा में जो ध्र व और अध्र व इस तरह दो प्रकार की सत्ता बतलाई है, उसमें प्रथम कषायों (अनन्तानुबंधि कषायों) की अवश्य ही ध्रुवसत्ता है। क्योकि गुणप्राप्ति के बिना उनकी विसंयोजना नहीं है ।
विशंषार्थ--पूर्व में (चौदहवीं गाथा की व्याख्या के प्रसंग में) सत्ता दो प्रकार की बतलाई है-ध्र वसत्ता और अध्र वसत्ता। उसमें से सम्यक्त्वादि उत्तरगुणों की प्राप्ति से पूर्व सभी संसारी जीवों में जिन प्रकृतियों की निरन्तर सत्ता पाई जाती है, वे प्रकृतियां ध्र वसत्ता वाली कहलाती हैं। ऐसी ध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियां एक सौ चार हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं
ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, साता-असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नव नोकषाय, तिर्यंचद्विक, जातिपचक, औदारिकद्विक, तैजस, कार्मण, संस्थानषटक, संहननषटक, वर्णादिचतुष्क, विहायोगति द्विक, पराघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, अ गुरुलघु,
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