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सको एकस्थानाहिये कि नर प्रकृतियां
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पंचसंग्रह : ३ द्विक, तैजस आदि शुभ प्रकृतियों का बंध होता है, तो उस समय उसको एकस्थानक रसबंध होना क्यों नहीं माना जाये ? तो प्रत्युत्तर में समझना चाहिये कि नरकप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करते समय वैक्रिय, तैजस आदि जो शुभ प्रकृतियां बंधती हैं उनका भी तथास्वभाव से जघन्यपद में द्विस्थानक रसबंध ही होता है, एकस्थानक रस बंधता ही नहीं है और इसका कारण है जीवस्वभाव ।
इस प्रकार से जिज्ञासु के तीन प्रश्नों का समाधान करने के पश्चात् अब आचार्य एक और प्रासंगिक प्रश्न का समाधान करते हैं। प्रश्न और उत्तर इस प्रकार है
उक्कोसठिईअज्झवसाणेहिं एगठाणिओ होही। सुभियाण तन्न जं ठिइ असंखगुणिया उ अणुभागा ॥५४॥
शब्दार्थ-उक्कोस---उत्कृष्ट, ठिईअज्झवसाणेहिं -स्थितिबंध के योग्य अध्यवसायों द्वारा. एगठाणिओ-एकस्थानक, होही-होगा, सुभियाण-शुभ प्रकृतियों का, तन्न वैसा नहीं है, ज-क्योंकि, ठिइ-स्थिति (बंधाध्यवसायों से), असंखगुणिया-असंख्यात गुणे, उ-ही, अणुभागाअनुभागबंधयोग्य अध्यवसाय ।
गाथार्थ-उत्कृष्ट स्थितिबंध के योग्य अध्यवसायों द्वारा शुभ प्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध होगा । (उत्तर) शुभ प्रकृतियों का वैसा नहीं है। क्योंकि स्थितिबंधयोग्य अध्यवसायों से अनुभागबंधयोग्य अध्यवसाय असंख्यातगुणे हैं। विशेषार्थ--उत्कृष्ट संक्लेश द्वारा उत्कृष्ट स्थितिबंध और जघन्य अनुभागबंध होता है। इसी दृष्टि को आधार बनाकर जिज्ञासु ने अपना प्रश्न उपस्थित किया है
शुभ अथवा अशुभ सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान जीव के होता है, उत्कृष्ट संक्लेश बिना नहीं होता है। जैसा कि कहा है
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