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________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार · गाथा ४७ १३६ शब्दार्थ-- जा-जो, जं-- जिस, समेच्च-प्राप्त करके, हेउ-हेतु को, विवागउदयं-विपाकोदय को, उति-प्राप्त होती हैं, पगईओ-प्रकृतियां, ता-वे, तविवागसन्ना--उस विपाक की संज्ञावाली, सेसभिहाणाई-शेष अभिधान--नाम, सुगमाई-सुगम । गाथार्थ-जो प्रकृतियां जिस हेतु के माध्यम से विपाकोदय को प्राप्त होती हैं वे प्रकृतियां उस विपाक संज्ञा वाली होती हैं। शेष नाम सुगम हैं। विशेषार्थ-गाथा में प्रकृतियों के हेतुविपाका कहने के सूत्र-कारण का संकेत किया है। द्रव्य, क्षेत्र, भव और जीव, ये विपाक कराने के चार सहचारी माध्यम-हेतु हैं । इसी से वे प्रकृतियां उस-उस नाम वाली कहलाती हैं । जैसे कि संस्थान, संहनन नामकर्मादि प्रकृतियां औदारिकशरीर आदि रूप पुद्गलों को प्राप्त करके विपाकोदय को प्राप्त होती हैं, जिससे वे प्रकृतियां पुद्गलविपाका कहलाती हैं। चार आनुपूर्वीनामकर्म विग्रहगतिरूप क्षेत्र के आश्रय से उदय में आती हैं, इसीलिए वे क्षेत्रविपाका कहलाती हैं, इत्यादि। 'सेसभिहाणाई सुगमाइं' अर्थात् शेष नाम ध्र वसत्ताका, अध्र वसत्ताका इत्यादि नाम सुगम हैं । अतः उस-उस नाम से उन प्रकृतियों को जानने में कठिनाई नहीं होने से यहाँ उनका विशेष विचार नहीं करते हैं। इस प्रकार से प्रकृतियों के वर्गीकरण की संज्ञाओं के नामकरण की दृष्टि को बतलाने के बाद अब हेतुविपाक के उक्त लक्षण का आश्रय लेकर कुछ हेतुविपाका प्रकृतियों के बारे में जिज्ञासु द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों का समाधान करते हैं। पुद्गलविपाकित्व विषयक समाधान अरइरईणं उदओ किन्न भवे पोग्गलाणि संपप्प । अप्पुट्ठ हि वि किन्नो एवं ' कोहाइयाणंवि ॥४७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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