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पंचसंग्रह : ३ बीस (त्रसदशक, स्थावरदशर्क) उच्छवासनाम, तीर्थंकरनाम, आतपनाम, उद्योतनाम, पराघातनाम, साता-असातावेदनीयद्विक, आयुचतुष्क, गोत्रद्विक (उच्चगोत्र, नीचगोत्र), हास्य-रति और अरति-शोक, वेदत्रिक । कुल मिलाकर ये तिहत्तर प्रकृतियां अध्र वबंधिनी हैं और इनको अध्र वबंधिनी मानने का कारण यह है कि सामान्य बंधहेतुओं के प्राप्त होने पर भी इनका विकल्प से-भजना से बंध होता है। अर्थात अवश्य बंध हो ऐसी नहीं होने से ये प्रकृतियां अध्र वबंधिनी मानी जाती हैं।
जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--
पराघातनाम और उच्छवासनामकर्म के अविरत आदि अपने बंधहेतुओं के होने पर भी जब पर्याप्त नामकर्म के योग्य कर्मप्रकृतियों का बंध हो तभी इनका बंध होता है, अपर्याप्तयोग्य कर्मबंध होने की स्थिति में ये प्रकृतियां नहीं बंधती हैं । आतपनाम एकेन्द्रिययोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर बंधती हैं, शेषकाल में इसका बंध नहीं होता है।
तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक के अनुक्रम से सम्यक्त्व और संयमरूप अपने-अपने सामान्य बंधहेतु होने पर भी किसी समय इनका बंध होता है। प्रत्येक सम्यग्दृष्टि और संयमी इनका बंध नहीं करता है। किन्तु तथाप्रकार की पारिणामिक योग्यता होने पर इनका बंध सम्भव होने से ये तीनों प्रकृतियां अध्र वबंधिनी मानी जाती हैं।
पूर्वोक्त से शेष रही औदारिकद्विक आदि सड़सठ प्रकृतियां अपनेअपने सामान्य बंधहेतुओं का सद्भाव होने पर भी परस्पर विरोधी होने से निरन्तर नहीं बंधने के कारण अध्र वबंधिनी हैं।
इस प्रकार औदारिकद्विक आदि वेदत्रिक पर्यन्त तिहत्तर प्रकृतियां अध्र वबंधिनी जानना चाहिए और जो अपने सामान्य बंधहेतुओं के होने पर अवश्य बंधती हैं वे 'धुवा अभयणीयबंधाओ'-ध्र वबंधिनी
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