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________________ बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३ ४१ प्रश्न - यह कैसे समझा जाये कि दूसरी पृथ्वी से लेकर उत्तरोत्तर असंख्यातवें भाग, असंख्यातवें भाग प्रमाण नारक हैं ? उत्तर - युक्ति से यह समझा जा सकता है और वह युक्ति इस प्रकार है-सातवीं नरकपृथ्वी में पूर्व पश्चिम और उत्तर दिशा में रहे हुए नारक अल्प हैं, किन्तु उनसे उसी सातवीं नरकपृथ्वी की दक्षिण दिशा में रहे हुए नारक असंख्यात गुणे हैं । प्रश्न- दक्षिणदिशा में असंख्यात गुणे क्यों हैं ? उत्तर - जगत में दो प्रकार के जीव हैं - (१) शुक्लपाक्षिक, (२) कृष्णपाक्षिक । इन दोनों के लक्षण इस प्रकार हैं-जिन जीवों का कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन मात्र संसार ही शेष हो, वे शुक्लपाक्षिक कहलाते हैं और अर्धपुद्गल परावर्तन से अधिक संसार जिनका शेष हो, उनको कृष्णपाक्षिक कहते हैं । " अतएव अर्धपुद्गल परावर्तन से न्यून संसार वाले जीव अल्प होने से शुक्ल पाक्षिक जीव अल्प हैं और कृष्णपाक्षिक अधिक हैं । कृष्णपाक्षिक जीव तथास्वभाव से दक्षिणदिशा में अधिक उत्पन्न होते हैं, परन्तु शेष तीन दिशाओं में अधिक उत्पन्न नहीं होते हैं । दक्षिणदिशा में कृष्णपाक्षिक जीवों का अधिक संख्या में उत्पन्न होने का कारण अर्थ- - सामान्यतया सम्पूर्ण नारकों का प्रमाण घनांगुल के दूसरे वर्गमूल से गुणित जगत-श्रेणि प्रमाण है । द्वितीयादि पृथ्वियों में रहने वाले नारकों का प्रमाण क्रम से अपने बारहवें, दसवें, आठवें, छठे, तीसरे और दूसरे वर्गमूल से भक्त जगत् श्रेणि प्रमाण समझना चाहिये तथा नीचे की छह पृथ्वियों के नारकों का जितना प्रमाण हो, उसको सम्पूर्ण नारकराशि में से घटाने पर जो शेष रहे, उतना ही प्रथम पृथ्वी के नारकों का प्रमाण है । १ जेसिमवड्ढो पोग्गलपरियट्टो सेसओ य संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु अहीए पुण कण्हपक्खीआ || २ ग्रंथकार आचार्य ने आगे गाथा ३७-४१ में पुद्गलपरावर्तन का स्वरूप बतलाया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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