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________________ २१० पंचसंग्रह : २ इनको काल-विभाग का बोधक मानने का कारण यह है कि संसारी जीव अनादि काल से इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है । अब तक एक भी परमाणु ऐसा शेष नहीं है कि जिसे इसने न भोगा हो, आकाश का एक भी प्रदेश और उत्सपिणी तथा अवसर्पिणी काल का ऐसा एक भी समय बाकी नहीं रहा एवं ऐसा एक भी कषायस्थान नहीं, जिसमें वह मरा न हो। प्रत्युत उन परमाणु, प्रदेश, समय और कषायस्थानों को यह जीव अनेक बार अपना चुका है । उसी को दृष्टि में रखकर इन द्रव्य पुद्गलपरावर्तन आदि नामों को कालबोधक कहते हैं। दिगम्बर साहित्य में भी संसारभ्रमण के इस अतीव सुदीर्घकाल का बोध कराने के लिए पुद्गलपरावर्तनों का वर्णन किया है। वहाँ ये परावर्तन पंचपरिवर्तन के नाम से प्रसिद्ध हैं । श्वेताम्बर साहित्य में बताए गए चारों परिवर्तनों के साथ एक भवपरिवर्तन का नाम विशेष है। इनका स्वरूप निम्न प्रकार है द्रव्यपरिवर्तन के दो भेद हैं-नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यपरिवर्तन । नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन-किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण किया, अनन्तर वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा वर्ण, गंध आदि के द्वारा जिस तीव्र, मंद और मध्यम भाव से ग्रहण किये थे, उस रूप में अवस्थित रह कर द्वितीयादि समयों में निर्जीण हो गए, तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा, मिश्र परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा और बीच में गृहीत परमाणओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा, तत्पश्चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गए वे ही परमाणु उसी प्रकार से नोकर्मभाव को प्राप्त होते हैं, तब यह सब मिलकर एक नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन कहलाता है । कर्मद्रव्यपरिवर्तन-एक जीव ने आठ प्रकार के कर्म रूप से जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, वे समयाधिक एक आवली वाल के बाद द्वितीयादि समयों में झड़ गए । पश्चात् जो क्रम नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन में बताया है, उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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