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________________ पंचसंग्रह : २ से जो लब्घ आये उतना ही सामान्य त्रस राशि का प्रमाण है और संख्यातवें भाग से भक्त प्रतरांगुल का भाग जगत्प्रतर में देने से जो लब्ध आये उतना उतना पर्याप्त त्रस जीवों का प्रमाण है तथा सामान्य त्रसराशि में से पर्याप्तकों का प्रमाण घटाने पर शेष अपर्याप्त त्रसों का प्रमाण होता है। सामान्य से तो बस जीवों की संख्या का प्रमाण पूर्वोक्त प्रकार से है, परन्तु पूर्व-पूर्व द्वीन्द्रियादिक की अपेक्षा उत्तरोत्तर त्रीन्द्रियादिक का प्रमाण क्रमक्रम से हीन-हीन है। जिसका आशय यह हुआ कि सराशि में आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर लब्ध बहुभाग के समान चार भाग करना और एक-एक भाग को द्वीन्द्रियादि चारों में विभक्त कर शेष एक भाग में फिर से आवली के असंख्यातवें भाग का भाग दें और लब्ध बहुभाग को बहुत संख्या वाले द्वीन्द्रिय जीवों को दें। शेष एक भाग में पुनः आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर एक भाग शेष रख बहुभाग त्रीन्द्रिय जीवों को दें । पुनः शेष एक भाग में आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर बहुभाग चतुरिन्द्रय जीवों को और शेष रहा एक भाग पंचेन्द्रिय जीवों को दें। इनका जो जोड़ हो उतना-उतना द्वीन्द्रिय आदि जीवों का पृथक्-पृथक् संख्या प्रमाण जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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