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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८४
१८५ इस प्रकार गणस्थानों के नाम बतलाने के वाद अब गुणस्थानों में वर्तमान जो जीव कर्म का बंध करते हैं, उसको बतलाते हैं
तेरस विबंधगा ते अट्ठविहं बंधियव्वयं कम्म । मूलुत्तरभेयं ते साहिमो ते निसामेह ॥८४॥
शब्दार्थ-तेरस-तेरह गुणस्थानवर्ती, विबंधगा-बंधक, ते–वे, अट्ठविह-आठों प्रकार के, बंधियव्वयं-बधनेयोग्य, कम्म-कर्म के, मूलुत्तरभेयं-मूल और उत्तर के भेद वाले, ते-उनको, साहिमो-कहते हैंबतलाते हैं, ते-उनको, निसामेह-सुनो।
गाथार्थ-तेरह गुणस्थानवी जीव मूल और उत्तर भेदवाले बंधनेयोग्य आठ प्रकार के कर्मों के बंधक हैं। अब उनको बतलाते हैं, जिसे तुम सुनो।
विशेषार्थ-मिथ्या दृष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानों में वर्तमान जीव यथायोग्य रीति से प्रतिसमय आठ, सात, छह या एक कर्म को बांधते हैं। किन्तु अयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती जीव बंधहेतुओं का अभाव होने से एक भी कर्म का बंध नहीं करते हैं। ____ बंधनेयोग्य वस्तु के बिना किसी भी तरह से कोई भी बंधक नहीं हो सकता है। वह बंधनेयोग्य वस्तु मूल और उत्तर के भेद वाले कर्म हैं। उनमें कर्म के मूलभेद आठ हैं और उत्तरभेद एक सौ अट्ठावन हैं । इन मूल और उत्तर भेदों का आगे विस्तार से वर्णन किया जा रहा है। इस प्रकार यह बंधक-प्ररूपणा नामक दूसरा अधिकार पूर्ण होता है ।
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