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________________ १७६ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८० के सिवाय शेष सभी तिर्यंच मिथ्यादृष्टि हैं। अतः उनका तथा असंख्य मिथ्या दृष्टि नारक, देव और मनुष्य जीवों का उनमें समावेश हो जाता है। जिससे तिर्यंच जीवों की अपेक्षा चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव विशेषाधिक कहे हैं। चातुर्गतिक मिथ्यादृष्टि जीवों से अविरतियुक्त-बिना विरति के जीव विशेषाधिक हैं। क्योंकि कितने ही अविरतसम्यग्दृष्टि जीवों का उनमें समावेश होता है। ___ अविरत जीवों की अपेक्षा कषाययुक्त जीव विशेषाधिक हैं । क्योंकि देशविरत से लेकर सूक्ष्मसपराय पर्यन्त गुणस्थानों में वर्तमान जीवों का उनमें समावेश होता है । ___ सकषायी जीवों से छद्मस्थ विशेषाधिक हैं। क्योंकि उनमें उपशांतमोही एवं क्षीणमोही जीवों का भी समावेश है। ___छद्मस्थ जीवों से सयोगी जीव विशेषाधिक हैं। क्योंकि उनमें सयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती जीव भी गर्भित हैं। सयोगी जीवों से संसारी जीव विशेषाधिक हैं। क्योंकि उनमें अयोगिकेवली गुणस्थानवी जीवों का भी समावेश है। संसारी जीवों की अपेक्षा सभी जीव विशेषाधिक हैं । क्योंकि सिद्ध जीवों का भी उनमें समावेश है। इस प्रकार सामान्यतः सर्वजीवों की अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिए। गुणस्थानापेक्षा अल्पबहुत्व उवसंतखवगजोगी अपमत्तपमत्त देससासाणा । मीसाविरया चउ चउ जहत्तरं संखसंखगुणा ॥८॥ शब्दार्थ-उवसंत-उपशांत, खवग-क्षपक, जोगी-योगी, अपमत्तअप्रमत्त, पमत्त-प्रमत्त, देस-देशविरति, सासाणा-सासादन गुणस्थानवर्ती, मोसाविरया-मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि, चउ-चार, चउ-चार, जहुत्तरंउत्तरोत्तर, सखसखगुणा-संख्यात,असंख्यातगुणे। Jáin Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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