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बंधक प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५५ काल पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। तत्पश्चात् अवश्य अन्तर पड़ता है। तात्पर्य यह हुआ कि उतना काल जाने के बाद कोई भी जीव अमुककाल पर्यन्त त्रसरूप से उत्पन्न नहीं होता है।
त्रसपने का उक्त काल सामान्यतः जानना चाहिये परन्तु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, संमूच्छिम मनुष्य, अप्रतिष्ठान नरकावास के नारकों को छोड़कर शेष नारक और अनुत्तरदेवों से शेष सब देव प्रत्येक निरन्तर उत्पन्न हों तो जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से आवलिका के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण काल पर्यन्त उत्पन्न होते हैं । तत्पश्चात् अवश्य अन्तर पड़ता है।
सम्यक्त्व और देशविरत चारित्र को अनेक जीव यदि निरन्तर प्राप्त करें तो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल पर्यन्त प्राप्त करते हैं। उसके बाद अमुक समय का अवश्य अंतर पड़ता है तथा सर्वथा पापव्यापार का त्याग रूप आत्मपरिणाम, उस रूप जो चारित्र जो कि मूलगुण और उत्तर गुण के आसेवन रूप लिंग द्वारा गम्य है, उसको तथा समस्त कर्मों का नाश होने से प्राप्त यथास्थित आत्मस्वरूप रूप जो सिद्धत्व उसको अनेक जीव प्राप्त करें तो जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से आठ समय पर्यन्त प्राप्त करते हैं। उसके बाद अवश्य अंतर पड़ता है तथा उपशमणि आदि के निरन्तर प्राप्त होने का समयप्रमाण इस प्रकार जानना चाहिये
उवसमसेढी उवसंतया य मणुयत्तणुत्तरसुरत्तं । पडिवज्जते समया संखेया खवगसेढी य ॥५५॥ शब्दार्थ-उवसमसेढी-उपशमश्रेणि, उवसंतया-उपशांतता, यऔर, मणुयत्तणुत्तरसुरत्-मनुष्यत्व और अनुत्तरदेवत्व, पडिवज्जते-प्राप्त करते हैं, समया-समय, संखे या-संख्यात, खवगसेढी--क्षपकश्रेणि, य-और ।
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