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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५४
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मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली ये छह गुणस्थान नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं। जिससे नाना जीवों की अपेक्षा इन छह गुणस्थानों का काल सुप्रतीत है और एक जीव की अपेक्षा इनका काल पूर्व में कहा जा चुका है। ___ इस प्रकार भवस्थिति, कायस्थिति और गुणस्थानों में एक जीव एवं अनेक जीवों का अवस्थान काल कहने के बाद अब एकेन्द्रियादि जीवों में अनेक जीवों की अपेक्षा निरन्तर उत्पत्ति का कालमान कहते हैं । अनेक जीवापेक्षा एकेन्द्रियादि में निरन्तर उत्पत्तिकाल
एगिदित्त सययं तसत्तणं सम्मदेसचारित्तं । आवलियासंखंसं अडसमय चरित्त सिद्धी य ॥५४॥
शब्दार्थ-एगिदित्त-एकेन्द्रियत्व, एकेन्द्रियपना, सययं-निरन्तर, तसत्तणं-त्रसपना, सम्मदेसचारित-सम्यक्त्व, देशविरति चारित्र, आवलियासंखस-आवलिका के असंख्यातवें भाग-प्रमाण, अडसमय-आठ समय, चरित्त-सर्वविरति चारित्र, सिद्धी-सिद्धत्व, य-और । __ गाथार्थ-एकेन्द्रियत्व निरन्तर होता है। सपना, सम्यक्त्व, देशविरति चारित्र, आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल पर्यन्त तथा सर्वविरति चारित्र और सिद्धत्व निरन्तर आठ समय पर्यन्त होता है।
विशेषार्थ-गाथा में अनेक जीवों की अपेक्षा ज.वभेदों और गुणस्थानों में निरन्तर उत्पत्ति का कालमान बतलाया है। पहले जीवभेदों में उत्पत्तिकाल बतलाते हैं । ____अनेक जीवों की अपेक्षा एकेन्द्रिय रूप से उत्पत्ति निरन्तर होती है । अर्थात् एकेन्द्रिय रूप से उत्पन्न हुई आत्माएँ हमेशा होती हैं । उनका विरहकाल नहीं है। जिसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार
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