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________________ १२६ पंचसंग्रह : २ ___ यदि वनस्पति की अपेक्षा सामान्य से विचार करें तो उसकी असंख्यात पुद्गलपरावर्तन प्रमाण कायस्थिति है। इस प्रकार जीव भेदों की अपेक्षा उन-उनकी कायस्थिति का काल जानना चाहिये । अब पहले जो एक जीव की अपेक्षा गुणस्थानों का काल कहा है, उसी को अनेक जीवों की अपेक्षा कहते हैं। अनेक जीवापेक्षा गुणस्थानों का काल सासणमीसाओ हवंति सन्तया पलियसंखइगकाला। उवसामग उवसंता समयाओ अंतरमुहुत्तं ॥५२॥ खवगा खीणाजोगी होंति अणिच्चावि अतंरमुहत्त। नाणा जीवे तं चिय सत्तहिं समएहिं अब्भहियं ॥५३॥ शब्दार्थ-सासण-सासादन, मोसाओ -मिश्रदृष्टि, हवंति-होते हैं, सन्तया-निरन्तर, पलियसंख-पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण, इगकाला-एक जीव के काल प्रमाण, उवसामग-उपशमक, उवसंताउपशांतमोह, समयाओ-एक समय से लेकर, अंतरमुहुत्त-अंतर्मुहूर्त पर्यन्त । खवगा-क्षपक, खीणाजोगी-क्षीणमोही और अयोगिकेवली, होंति-होते हैं, अणिच्चावि-अनित्य हैं फिर भी, अंतरमुत्त-अन्तमुहूर्त पर्यन्त, नाणा-अनेक, जीवे-जीवों की अपेक्षा, तं चिय-उसी प्रकार, सत्तहि-सात, समरहि-समय से, अब्महियं-अधिक । गाथार्थ—सासादन और मिश्रदृष्टि निरन्तर उत्कृष्ट और जघन्य से क्रमशः पल्योपम के असंख्यातवें भाग और एक जीव के कालप्रमाण कालपर्यन्त तथा उपशमक और उपशांतमोह एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होते हैं। - १. प्रज्ञापनासूत्रगत सम्बन्धित कायस्थिति का वर्णन परिशिष्ट में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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