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________________ पंचसंग्रह पूर्वभव के अन्तिम समय मध्य में और परभवायु के पहले समय उत्पत्तिस्थान में जाता है । परभवायु के पहले समय में उत्पत्तिस्थान में जाने वाला होने से और उस समय अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होने से वक्रगति से जाते हुए प्रमत्तादि के सात राजू की स्पर्शना संभवित नहीं है। अब शेष रहे देशविरत गुणस्थान की स्पर्शना बतलाते हैं कि 'पुदेसजया' इस पद में पु पद द्वारा सामान्य से मनुष्य का ग्रहण किया है। इसलिये सामान्य से मनुष्य देशविरत जीव ऋजुगति द्वारा जब बारहवें अच्युतस्वर्ग में उत्पन्न होता है, तब उसके छह राजू की स्पर्शना घटित होती है। यहाँ मनुष्य को ग्रहण करने का कारण यह है कि तिथंच सहस्रार नामक आठवें देवलोक तक ही जाते हैं। देशविरत आदि गुणस्थान अपने भव के अन्त समय पर्यन्त ही होते हैं। इसलिये पूर्व में कही गई युक्ति से ऋजुगति से ही जाने पर छह राजू की स्पर्शना देशविरत जीव के संभव है। तिर्यग्लोक के मध्यभाग से अच्युत देवलोक पर्यन्त छह राजू होते हैं, इसलिये देशविरतगुणस्थानवर्ती जीवों की छह राजू की स्पर्शना बताई है। इस प्रकार से स्पर्शना-प्ररूपणा जानना चाहिये। अब काल-प्ररूपणा प्रारम्भ करते हैं। १ देशविरत को स्पर्श ना के लिये जीवसमास में बताया है कि देशविरत मनुष्य यहाँ से मरकर अच्युत देवलोक में उत्पन्न होने पर छह राजू को स्पर्श करता है, किन्तु यहाँ यह नहीं कहना चाहिए कि देवलोक में उत्पन्न होने वाला वह जीव देव होने से अविरतसम्यग्दृष्टि है, देश विरत नहीं । क्योंकि जो देशविरत जीव ऋजुगति के द्वारा एक समय में देव उत्पन्न होता है, उसकी पूर्वभव की आयु का क्षय हुआ नहीं एवं पूर्वभव के शरीर का भी सम्बन्ध नहीं छूटा है। जिससे ऋजुगति में पूर्व भव की आयु और पूर्वभव के शरीर का सम्बन्ध होने से वह आत्मा देशविरत ही है। इसी कारण ऋजुगति से जाने पर छह राजू की स्पर्शना बताई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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